सिंधु घाटी सभ्यता

परिभाषा

Joshua J. Mark
द्वारा, Ruby Anand द्वारा अनुवादित
07 October 2020 पर प्रकाशित
अन्य भाषाओं में उपलब्ध: अंग्रेजी, फ्रेंच, ग्रीक, स्पेनिश
Mohenjo-daro (by Andrzej Nowojewski, CC BY-SA)
मोहन जोदड़ो
Andrzej Nowojewski (CC BY-SA)

सिंधु घाटी सभ्यता एक सांस्कृतिक और राजनीतिक इकाई थी जो सी. 7000 - सी. 600 ईसा पूर्व. के बीच भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तरी क्षेत्र में विकसित हुई। इसका आधुनिक नाम सिंधु नदी की घाटी , जहाँ यह विकसित हुई, से लिया गया है। इसे आमतौर पर सिंधु-सरस्वती सभ्यता और हड़प्पा सभ्यता के नाम से भी जाना जाता है।

बाद वाले यह पदनाम वैदिक स्रोतों में उल्लिखित सरस्वती नदी से आते हैं, जो सिंधु नदी के निकट बहती थी, और इस क्षेत्र में प्राचीन शहर हड़प्पा था, जो आधुनिक युग में पाया जाने वाला पहला शहर था। इनमें से कोई भी नाम किसी प्राचीन ग्रंथ से नहीं लिया गया है, हालांकि विद्वान आम तौर पर मानते हैं कि इस सभ्यता के लोगों ने एक लेखन प्रणाली विकसित की थी (जिसे सिंधु लिपि या हड़प्पा लिपि के रूप में जाना जाता है) लेकिन इसे अभी तक समझा नहीं जा सका है।

सभी तीन नाम आधुनिक हैं तथा इस सभ्यता की उत्पत्ति, विकास, गिरावट और पतन के बारे में निश्चित रूप से कुछ भी ज्ञात नहीं है। फिर भी, आधुनिक पुरातत्व ने एक संभावित कालक्रम और अवधिकरण स्थापित किया है।

पूर्व-हड़प्पा - सी. 7000 - सी. 5500 ईसा पूर्व
प्रारंभिक हड़प्पा - सी। 5500 - 2800 ईसा पूर्व
परिपक्व हड़प्पा - सी। 2800 - सी. 1900 ई.पू
उत्तर हड़प्पा - सी. 1900 - सी. 1500 ईसा पूर्व
पोस्ट हड़प्पा - सी। 1500 - सी. 600 ईसा पूर्व

सिंधु घाटी सभ्यता की तुलना अब अक्सर मिस्र और मेसोपोटामिया जैसी प्रसिद्ध संस्कृतियों से की जाती है, लेकिन यह हाल ही का विकास है। 1829 ई. में हड़प्पा की खोज इस बात का पहला संकेत था कि ऐसी कोई सभ्यता भारत में मौजूद थी। उस समय तक, मिस्र के चित्रलिपि को समझा जा चुका था, मिस्र और मेसोपोटामिया स्थलों की खुदाई हो चुकी थी, और जल्द ही विद्वान जॉर्ज स्मिथ (एल.1840-1876 ई.) द्वारा क्यूनिफॉर्म का अनुवाद किया जाने वाला था।सिंधु घाटी सभ्यता की पुरातात्विक खुदाई तुलनात्मक रूप से काफी देर से शुरू हुई, और अब यह माना जाता है कि कई उपलब्धियाँ और "पहली चीजें" जिन्हें मिस्र और मेसोपोटामिया के साथ जोड़ा गया था, वास्तव में सिंधु घाटी सभ्यता के लोगों की हो सकती हैं।

ऐसा माना जाता है कि सभ्यता की कुल जनसंख्या 5 मिलियन से अधिक थी, और इसका क्षेत्र सिंधु नदी के किनारे 900 मील (1,500 किमी) तक फैला हुआ था।

इस संस्कृति के सबसे प्रसिद्ध उत्खनन वाले शहरों में से दो, हड़प्पा और मोहनजो-दारो (आधुनिक पाकिस्तान में स्थित) हैं। ऐसा माना जाता है कि दोनों की आबादी कभी 40,000-50,000 लोगों के बीच थी, जो आश्चर्यजनक है कयोंकि प्राचीन शहरों में औसतन 10,000 लोग रहते थे। ऐसा माना जाता है कि सभ्यता की कुल जनसंख्या 50 लाख से अधिक थी, और इसका क्षेत्र सिंधु नदी के किनारे और फिर बाहर की ओर सभी दिशाओं में 900 मील (1,500 किमी) तक फैला हुआ था। नेपाल की सीमा के पास, अफगानिस्तान में, भारत के तटों पर और दिल्ली के आसपास; यह केवल कुछ स्थानों के नाम हैं, जहाँ सिंधु घाटी सभ्यता के स्थल पाए गए ।

सी.1900 - सी. 1500 ईसा पूर्व के बीच,इस सभ्यता का पतन शुरू हो गया, जिसके कारण अज्ञात हैं। ऐसा माना जाता है कि 20वीं सदी की शुरुआत में उत्तर की तरफ़ से आर्यों के नाम से जाने जाने वाले गोरी त्वचा वाले लोगों के आक्रमण के कारण ऐसा हुआ था, जिन्होंने पश्चिमी विद्वानों द्वारा द्रविड़ के रूप में परिभाषित गहरे रंग के लोगों पर विजय प्राप्त की थी। लेकिन आर्य आक्रमण सिद्धांत के नाम से मशहूर इस दावे को खारिज कर दिया गया है।अब यह माना जाता है कि आर्य - जिनकी जातीयता ईरानी फारसियों से जुड़ी हुई है - शांतिपूर्वक इस क्षेत्र में जा बसे और उन्होंने अपनी संस्कृति को वहॉं के रहने वाले लोगों की संस्कृति के साथ मिश्रित कर लिया ।जबकि द्रविड़ शब्द अब किसी भी जातीयता के किसी भी व्यक्ति को संदर्भित करने के लिए समझा जाता है, जो द्रविड़ भाषाओं में से एक भाषा बोलता है।

सिंधु घाटी सभ्यता का पतन क्यों हुआ यह अभी अज्ञात है, लेकिन विद्वानों का मानना ​​है कि इसका संबंध -जलवायु परिवर्तन, सरस्वती नदी के सूखने, फसलों को पानी देने वाले मानसून के मार्ग में बदलाव, शहरों की अधिक जनसंख्या, आदि से हो सकता है; मिस्र और मेसोपोटामिया के साथ व्यापार में गिरावट, या उपरोक्त में से किसी का संयोजन। वर्तमान समय में, अब तक पाए गए कई स्थलों पर खुदाई जारी है और आशा है कि भविष्य की खोज से इस संस्कृति के इतिहास और गिरावट के बारे में अधिक जानकारी मिल पाएगी।

खोज एवं प्रारंभिक उत्खनन

सिंधु घाटी सभ्यता के लोगों की कलाकृतियों पर प्रतीक और शिलालेख, जिनकी व्याख्या कुछ विद्वानों ने एक लेखन प्रणाली के रूप में की है, अभी भी अस्पष्ट हैं और इसलिए पुरातत्वविद् आमतौर पर इस संस्कृति की उत्पत्ति को परिभाषित करने से बचते हैं क्योंकि कोई ऐसा कोई भी प्रयास काल्पनिक ही होगा , निश्चित नहीं। आज तक इस सभ्यता के बारे में जो कुछ भी जाना जा सका है उसका आधार विभिन्न स्थलों पर खुदाई से प्राप्त भौतिक साक्ष्य हैं। इसलिए, सिंधु घाटी सभ्यता की कहानी , सबसे अच्छी तरह से 19वीं शताब्दी ईस्वी में हुई इसके खंडहरों की खोज से मिलती है।

जेम्स लुईस (जिसे चार्ल्स मैसन के नाम से बेहतर जाना जाता है, 1800-1853 ई.) एक ब्रिटिश सैनिक था जो ईस्ट इंडिया कंपनी सेना के तोपखाने में कार्यरत था। 1827 ई. में वह एक अन्य सैनिक के साथ भाग गया था। अधिकारियों द्वारा पहचाने जाने से बचने के लिए, उन्होंने अपना नाम बदलकर चार्ल्स मैसन रख लिया और पूरे भारत की यात्रा पर निकल पड़े। मैसन एक शौकीन मुद्राशास्त्री (सिक्का संग्रहकर्ता) था, जो विशेष रूप से पुराने सिक्कों में रुचि रखता था और विभिन्न सुरागों का पालन करते हुए, अपने दम पर प्राचीन स्थलों की खुदाई करने लगा। इनमें से एक स्थल हड़प्पा था, जिसे उन्होंने 1829 ई. में खोजा था। ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने अपने नोट्स में इसका रिकॉर्ड बनाने के बाद, साइट को काफी जल्दी छोड़ दिया था।उन्हें इस बात की कोई जानकारी नहीं थी कि शहर का निर्माण किसने किया होगा तथा गलती से उन्होंने इसका श्रेय सिकंदर महान को दे दिया जिसने ३२६ ईसा पूर्व. के दौरान भारत में अभियान किए थे।

Indus Valley Civilization - Mature Harappan Phase
सिंधु घाटी सभ्यता - परिपक्व हड़प्पा चरण
Avantiputra7 (CC BY-SA)

जब मैसन अपने साहसिक कारनामों के बाद ब्रिटेन लौटे (और किसी तरह उनके परित्याग को माफ किए जा चुका था ), तो उन्होंने 1842 ई. में अपनी पुस्तक नैरेटिव ऑफ वेरियस जर्नीज़ इन बलूचिस्तान, अफगानिस्तान एंड द पंजाब प्रकाशित की, जिसने भारत में ब्रिटिश अधिकारियों का ध्यान आकर्षित किया और विशेष रूप से अलेक्जेंडर कनिंघम का। प्राचीन इतिहास के प्रति जुनून रखने वाले एक ब्रिटिश इंजीनियर सर अलेक्जेंडर कनिंघम (जन्म 1814-1893 ई.) ने 1861 ई. में भारत में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ए एस आई ) की स्थापना की, जो उत्खनन और संरक्षण के पेशेवर मानक को बनाए रखने के लिए समर्पित एक संगठन है। कनिंघम ने सथलों की खुदाई शुरू की और 1875 ई. में अपनी व्याख्या प्रकाशित की (जिसमें उन्होंने सिंधु लिपि की पहचान की और उसे नाम दिया) लेकिन यह व्याख्या अधूरी थी और इसमें परिभाषा का अभाव था कयोंकि पुरानी किसी भी ज्ञात सभ्यता , जिसने इसे बनाया हो सकता था, से कोई संबंध न होने के कारण, हड़प्पा अलग-थलग रहा।

1904 ई. में, एएसआई के एक नए निर्देशक, जॉन मार्शल (1876-1958 ई.) को नियुक्त किया गया, जिन्होंने बाद में हड़प्पा का दौरा किया और निष्कर्ष निकाला कि यह स्थल एक प्राचीन सभ्यता का प्रतिनिधित्व करता है जो उस समय से पहले अज्ञात थी। उन्होंने उस स्थल की पूरी तरह से खुदाई करने का आदेश दिया और लगभग उसी समय, कुछ मील दूर एक और स्थल के बारे में सुना, जिसे स्थानीय लोग मोहनजो-दारो ("मृतकों का टीला") कहते थे, क्योंकि वहां विभिन्न कलाकृतियों के साथ साथ वहां जानवरों और इंसानों दोनों की हड्डियां पाई गई थी। मोहनजो-दारो में खुदाई 1924-1925 सी में शुरू हुई और दोनों साइटों की समानताएं पहचानी गईं; तथा सिन्धु घाटी सभ्यता की खोज हो गई।

हड़प्पा और मोहनजोदड़ो

वेदों के नाम से जाने जाने वाले हिंदू ग्रंथ, तथा भारतीय परंपरा के अन्य महान कार्य जैसे महाभारत और रामायण ; पश्चिम विद्वानों को पहले से ही अच्छी तरह से ज्ञात थे, लेकिन वे यह नहीं जानते थे कि किस संस्कृति ने उन्हें बनाया है। उस समय के प्रणालीगत नस्लवाद ने इन कार्यों का श्रेय भारत के लोगों को नहीं देने दिया, और सबसे पहले, पुरातत्वविदों ने यह निष्कर्ष निकाला कि हड़प्पा मेसोपोटामिया के सुमेरियों का एक उपनिवेश था या शायद एक मिस्र की चौकी थी।

Harappa
हड़प्पा
Muhammad Bin Naveed (CC BY-SA)

हालाँकि, हड़प्पा न तो मिस्र और न ही मेसोपोटामिया की वास्तुकला के अनुरूप था, क्योंकि वहाँ मंदिरों, महलों या स्मारकीय संरचनाओं का कोई सबूत नहीं था, राजाओं या रानियों के कोई नाम नहीं थे और न ही स्तम्भ या शाही मूर्तियॉं ।यह शहर 370 एकड़ (150 हेक्टेयर) में फैला हुआ था जिसमें मिट्टी से बनी सपाट छतों वाले छोटी ईंट के घर थे। वहां एक क़िला था, दीवारें थीं, सड़कें ग्रिड पैटर्न में बनी हुई थीं, जो स्पष्ट रूप से शहरी नियोजन में उच्च स्तर की कौशल का प्रदर्शन करती थीं और दोनों साइटों की तुलना करने पर, उत्खननकर्ताओं को यह स्पष्ट था कि वे एक अत्यधिक उन्नत संस्कृति से निपट रहे थे।

दोनों शहरों के घरों में फ्लश शौचालय, एक सीवर प्रणाली थी, और सड़कों के दोनों ओर फिक्स्चर थे जो कि एक विस्तृत जल निकासी प्रणाली का हिस्सा थे। यह प्रारंभिक रोमनों की तुलना में अधिक उन्नत थी। परशिया में "विंड कैचर" के रूप में जाने जाने वाले उपकरण कुछ इमारतों की छतों से जुड़े हुए थे, जो घर या प्रशासनिक कार्यालय के लिए एयर कंडीशनिंग प्रदान करते थे और मोहनजो-दारो में, एक बड़ा सार्वजनिक स्नानघर था, जो एक आंगन से घिरा हुआ था और जिसमें नीचे की ओर जाने वाली सीढ़ियाँ थीं।

जैसे-जैसे अन्य स्थलों की खुदाई की गई, इसी स्तर की परिष्कार और कौशलता सामने आई और साथ ही यह भी समझ आ गया कि ये सभी शहर पूर्व-योजनाबद्ध थे। अन्य संस्कृतियों के विपरीत, जो आम तौर पर छोटे ग्रामीण समुदायों से विकसित हुईं, सिंधु घाटी सभ्यता के शहरों के बारे में पहले से सोचा गया था, एक जगह चुनी गई थी, और पूरी तरह से बसने से पहले उद्देश्यपूर्ण ढंग से उनका निर्माण किया गया था। इसके अलावा, उन सभी ने एक ही दृष्टिकोण के अनुरूप का प्रदर्शन किया जो एक कुशल नौकरशाही के साथ साथ एक मजबूत केंद्र सरकार का सुझाव देता है ; जो ऐसे शहरों की योजना बना सकती है, वित्त पोषण कर सकती है और निर्माण कर सकती है। विद्वान जॉन केय टिप्पणी करते हैं:

जिस बात ने इन सभी अग्रदूतों को चकित कर दिया, और जो अब तक ज्ञात कई सौ हड़प्पा स्थलों की विशिष्ट विशेषता बनी हुई है, वह उनकी समानता है: "हमारी धारणा इसकी सांस्कृतिक एकरूपता से बहुत प्रभावित है । एक तो यह बहुत लंबे समय तक चली , कई शताब्दियों के दौरान और उसके बाद भी हड़प्पा सभ्यता फली-फूली थी और दूसरा, इसने विशाल क्षेत्र पर कब्ज़ा कर लिया।” उदाहरण के लिए, सभी ईंटें मानकीकृत आयामों की हैं, और इसी तरह हड़प्पावासियों द्वारा वजन मापने के लिए उपयोग किए जाने वाले पत्थर के टुकड़े भी मानक हैं और मॉड्यूलर प्रणाली पर आधारित हैं। सड़क की चौड़ाई भी एक समान मॉड्यूल के अनुरूप है; इस प्रकार, सड़कें आम तौर पर साइड लेन की चौड़ाई से दोगुनी हैं, जबकि मुख्य धमनियां सड़कों की चौड़ाई से दोगुनी या डेढ़ गुना हैं। अब तक खोदी गई अधिकांश सड़कें सीधी हैं और उत्तर-दक्षिण या पूर्व-पश्चिम में चलती हैं। इसलिए शहर की योजनाएँ एक नियमित ग्रिड पैटर्न के अनुरूप हैं और ऐसा प्रतीत होता है कि भवन निर्माण के कई चरणों में इस लेआउट को बरकरार रखा गया है। (9)

ब्रिटिश पुरातत्वविद् सर मोर्टिमर व्हीलर (एल. 1890-1976 सीई) के निर्देशन में दोनों स्थलों पर खुदाई 1944-1948 ई. के बीच जारी रही। जिनकी नस्लवादी विचारधारा ने उनके लिए यह स्वीकार करना कठिन बना दिया था कि गहरे रंग के लोगों ने इन शहरों का निर्माण किया था। फिर भी, वह हड़प्पा के लिए स्ट्रैटिग्राफी स्थापित करने और सिंधु घाटी सभ्यता के बाद के कालक्रम की नींव रखने में कामयाब रहे।

Great Bath, Mohenjo-daro
महान स्नानागार, मोहनजोदड़ो
Benny Lin (CC BY-NC)

कालक्रम

व्हीलर के काम ने पुरातत्वविदों को सभ्यता की नींव से लेकर उसके पतन और गिरावट तक की अनुमानित तारीखों को पहचानने के साधन प्रदान किए। जैसा कि उल्लेख किया गया है, कालक्रम मुख्य रूप से हड़प्पा स्थलों के भौतिक साक्ष्यों के साथ-साथ मिस्र और मेसोपोटामिया के साथ उनके व्यापारिक संपर्कों के ज्ञान पर भी आधारित है। अगर एक ही उत्पाद का नाम ले तो लापीस लाजुली, दोनों संस्कृतियों में बेहद लोकप्रिय था। हालांकि विद्वान जानते थे कि यह भारत से आया है, लेकिन सिंधु घाटी सभ्यता की खोज होने तक उन्हें ठीक से पता नहीं था कि यह कहां से आया है। हालाँकि सिंधु घाटी सभ्यता के पतन के बाद भी इस अर्ध-कीमती पत्थर का आयात जारी रहा, लेकिन यह स्पष्ट है कि शुरुआत में इसका कुछ निर्यात इसी क्षेत्र से हुआ था।

  • पूर्व-हड़प्पा - सी. 7000 - सी. 5500 ईसा पूर्व: नवपाषाण काल ​​का सबसे अच्छा उदाहरण मेहरगढ़ जैसे स्थल हैं जो कृषि विकास, पौधों और जानवरों को पालतू बनाने और औजारों और चीनी मिट्टी के उत्पादन के प्रमाण दिखाते हैं।
  • प्रारंभिक हड़प्पा - सी 5500-2800 ईसा पूर्व: मिस्र, मेसोपोटामिया और संभवतः चीन के साथ व्यापार मजबूती से स्थापित हुआ। छोटे गांवों में रहने वाले समुदायों द्वारा जलमार्गों के पास बंदरगाह, गोदी और गोदाम बनाए गए।
  • परिपक्व हड़प्पा - सी। 2800 - सी. 1900 ईसा पूर्व : महान शहरों का निर्माण और व्यापक शहरीकरण। हड़प्पा और मोहनजोदड़ो दोनों समृद्ध हैं। 2600 ईसा पूर्व. गनेरीवाला, लोथल और धोलावीरा जैसे अन्य शहर भी इसी मॉडल के अनुसार बनाए गए हैं और भूमि का यह विकास सैकड़ों अन्य शहरों के निर्माण के साथ तब तक जारी रहता है जब तक कि पूरे देश में हर दिशा में 1,000 से अधिक शहर नहीं बन जाते।
  • उत्तर हड़प्पा - सी. 1900 - सी. 1500 ईसा पूर्व: सभ्यता का पतन , उसी समय पर जिस समय उत्तर से आर्य लोगों के प्रवासन की लहर उठी ,संभवतः ईरानी पठार से। भौतिक साक्ष्य से पता चलता है कि जलवायु परिवर्तन के कारण बाढ़, सूखा और अकाल भी पड़ा। मिस्र और मेसोपोटामिया के साथ व्यापार संबंधों की हानि को भी एक कारण के रूप में सुझाया गया है।
  • पोस्ट हड़प्पा - सी। 1500 - सी. 600 ईसा पूर्व: शहरों को छोड़ दिया गया है, और लोग दक्षिण की ओर चले गए हैं। 530 ईसा पूर्व में जब साइरस द्वितीय (महान, आर. सी. 550-530 ईसा पूर्व) ने भारत पर आक्रमण किया, तब तक यह सभ्यता पहले ही गिर चुकी थी।

Harappan Civilization (Artist's Impression)
हड़प्पा सभ्यता (कलाकार की छाप)
Amplitude Studios (Copyright)

संस्कृति के पहलू

ऐसा प्रतीत होता है कि लोग मुख्य रूप में कारीगर, किसान और व्यापारी थे। यहां न तो स्थायी सेना का कोई प्रमाण है, न महलों क और न ही मंदिरों का। ऐसा माना जाता है कि मोहनजो-दारो के महान स्नानघर का उपयोग धार्मिक विश्वास से संबंधित अनुष्ठान शुद्धिकरण संस्कार के लिए किया जाता था, लेकिन यह एक अनुमान ही है; यह मनोरंजन के लिए एक सार्वजनिक पूल भी हो सकता है। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रत्येक शहर का अपना गवर्नर था, लेकिन यह अनुमान भी लगाया जाता है कि शहरों की एकरूपता प्राप्त करने के लिए किसी न किसी प्रकार की कोई केंद्रीकृत सरकार रही होगी। जॉन की की टिप्पणियों के अनुसार:

हड़प्पा के उपकरण, बर्तन और सामग्रियां एकरूपता की इस धारणा की पुष्टि करते हैं। लोहे से अपरिचित - जिसे तीसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व में कहीं भी नहीं जाना जाता था - हड़प्पावासी चर्ट, एक प्रकार के क्वार्ट्ज, या तांबे और कांस्य से बने उपकरणों की एक मानकीकृत किट का उपयोग करते थे जिससे वह 'सहज क्षमता' से काटते, खुरचते, उभारते और ज़मीन को खोदते थे। सोने और चाँदी के साथ साथ ये ही एकमात्र धातुएँ उपलब्ध थीं। उनका उपयोग बर्तनों और मूर्तियों को ढालने और विभिन्न प्रकार के चाकू, मछली पकड़ने के कांटे, तीर के निशान, आरी, छेनी, दरांती, पिन और चूड़ियाँ बनाने के लिए भी किया जाता था। (10)

विभिन्न स्थलों पर खोजी गई हजारों कलाकृतियों में से एक इंच (3 सेमी) से थोड़ा अधिक व्यास वाली छोटी, सोपस्टोन सीलें हैं, जिनके बारे में पुरातत्वविदों का मानना है कि इनका उपयोग व्यापार में व्यक्तिगत पहचान के लिए किया गया। ऐसा माना जाता है कि मेसोपोटामिया के सिलेंडर सील की तरह, इन मुहरों का उपयोग अनुबंधों पर हस्ताक्षर करने, भूमि की बिक्री को अधिकृत करने और लंबी दूरी के व्यापार में माल की उत्पत्ति, शिपमेंट और प्राप्ति को प्रमाणित करने के लिए किया जाता था।

Unicorn Seal - Indus Script
यूनिकॉर्न सील - सिंधु लिपि
Mukul Banerjee (Copyright)

लोगों ने पहिया, मवेशियों द्वारा खींची जाने वाली गाड़ियाँ, व्यापारिक वस्तुओं के परिवहन के लिए पर्याप्त चौड़ी सपाट तल वाली नावें विकसित की थीं और संभवतः पाल का भी विकास किया होगा। कृषि में, उन्होंने सिंचाई तकनीकों और नहरों, विभिन्न कृषि उपकरणों को समझा और उनका उपयोग किया, और मवेशियों के चरने और फसलों को लगाने के लिए अलग-अलग क्षेत्र स्थापित किए। प्रजनन अनुष्ठान , पूरी फसल के साथ-साथ महिलाओं की गर्भावस्था के लिए भी किए जाते होंगे , जैसा कि महिला रूप में कई मूर्तियों, ताबीज और मूर्तियों से प्रमाणित होता है। ऐसा माना जाता है कि लोग मातृ देवी और साथ ही सम्भवतः उसके पुरूष रूप (देवता ) की पूजा भी करते होंगे , जो कि जंगली जानवरों के साथ एक सींग वाले व्यक्ति के रूप में चित्रित मिलता है। संस्कृति की यह धार्मिक मान्यताएँ अज्ञात हैं और कोई भी सुझाव काल्पनिक होने की पूरी संभावना हो सकती है।

उनके कलात्मक कौशल का स्तर मूर्तियों, साबुन के पत्थर की मुहरों, चीनी मिट्टी की चीज़ें और गहनों की कई खोजों से स्पष्ट होता है। सबसे प्रसिद्ध कलाकृति 4 इंच (10 सेमी) ऊंची कांस्य प्रतिमा है, जिसे "डांसिंग गर्ल" के नाम से जाना जाता है, जो 1926 ई. में मोहनजो-दारो में मिली थी। इस टुकड़े में एक किशोरी लड़की को दिखाया गया है, जिसका दाहिना हाथ उसके कूल्हे पर है, बायां हाथ उसके घुटने पर है, उसकी ठुड्डी ऊपर उठी हुई है जैसे कि वह प्रेमी के दावों का मूल्यांकन कर रही हो। इसी के समान एक और प्रभावशाली कृति है जो 6 इंच (17 सेमी) लंबी साबुन बनाने के पत्थर से बनी हुई है। इसे पुजारी-राजा के नाम से जाना जाता है, जिसमें एक दाढ़ी वाले आदमी को एक साफा और सजावटी बाजूबंद पहने हुए दिखाया गया है।

Dancing Girl of Mohenjo-daro
मोहनजोदड़ो की नृत्यांगना
Joe Ravi (CC BY-SA)

कलाकृति का एक विशेष रूप से दिलचस्प पहलू है- 60 प्रतिशत से अधिक व्यक्तिगत मुहरों पर एक गेंडा जैसा प्रतीत होने वाली आकृति का होना। इन मुहरों पर कई अलग-अलग छवियां हैं, लेकिन, जैसा कि केई ने उल्लेख किया है, "परिपक्व हड़प्पा स्थलों पर पाए गए कुल 1755 मुहरों में से 1156 मुहरों और मुहरों की छापों" (17) पर यूनिकॉर्न दिखाई देता है। उन्होंने यह भी देखा कि मुहरों पर, चाहे उन पर कोई भी छवि दिखाई देती हो, ऐसे निशान भी हैं जिनकी व्याख्या सिंधु लिपि के रूप में की गई है। जिससे यह पता चलता है कि "लेखन" छवि से अलग अर्थ बता रहा है। "यूनिकॉर्न" संभवतः किसी व्यक्ति के परिवार, कबीले, शहर, या राजनीतिक संबद्धता और "लिखने" वाले व्यक्ति की व्यक्तिगत जानकारी का प्रतिनिधित्व करता होगा।

पतन और आर्य आक्रमण का परिकलपित सिद्धांत

जिस प्रकार इस प्रश्न का कोई निश्चित उत्तर नहीं है कि यह मुहरें क्या थीं, "यूनिकॉर्न" किसका प्रतिनिधित्व करते थे, या लोग अपने देवताओं की पूजा कैसे करते थे; उसी तरह इस संस्कृति का ह्रास और पतन क्यों हुआ इसका भी कोई निश्चित उत्तर नहीं है। सी. 1900 - सी. 1500 ईसा पूर्व के बीच, शहरों को लगातार छोड़ दिया गया और लोग दक्षिण की ओर चले गए। जैसा कि उल्लेख किया गया है, इस संबंध में कई सिद्धांत हैं, लेकिन कोई भी पूरी तरह से संतोषजनक नहीं है। एक सिद्धांत के अनुसार, गग्गर-हकरा नदी, जिसे वैदिक ग्रंथों में सरस्वती नदी से पहचाना जाता है और जो सिंधु नदी के निकट बहती थी, 1900 ईसा पूर्व में सूख गई। उस पर निर्भर लोगों को बड़े पैमाने पर स्थानांतरण करने की आवश्यकता पड़ गई। मोहनजो-दारो जैसे स्थलों पर गाद का जमा होना , एक बड़ी बाढ़ का संकेत देती है जिसे एक अन्य कारण के रूप में देखा जाता है।

Priest-king from Mohenjo-daro
मोहनजोदड़ो का पुजारी-राजा
Mamoon Mengal (CC BY-SA)

एक अन्य संभावना आवश्यक व्यापारिक वस्तुओं में गिरावट आना हो सकती है। मेसोपोटामिया और मिस्र दोनों ही इस समय के दौरान परेशानियों का सामना कर रहे थे जिसके परिणामस्वरूप व्यापार में महत्वपूर्ण व्यवधान होने की संभावना है।उत्तर हड़प्पा काल मेसोपोटामिया (2119-1700 ईसा पूर्व) में मध्य कांस्य युग से काफ़ी मेल खाता है, जिसके दौरान सुमेरियन - जो कि सिंधु घाटी के लोगों के साथ प्रमुख व्यापारिक भागीदार थे, गुटियन आक्रमणकारियों को खदेड़ने में लगे हुए थे और, लगभग ई. 1792-1750 ईसा पूर्व के बीच, बेबीलोन के राजा हम्मुराबी अपने साम्राज्य को मजबूत करने के साथ साथ , उनके शहर-राज्यों पर विजय प्राप्त कर रहे थे। मिस्र में, यह अवधि मध्य साम्राज्य के उत्तरार्ध (2040-1782 ईसा पूर्व) से मेल खाती है जिस समय कमजोर 13वें राजवंश ने हिक्सोस के आने से ठीक पहले शासन किया था और केंद्र सरकार की शक्ति और अधिकार का नुकसान हुआ था।

हालाँकि, 20वीं सदी के आरंभिक विद्वानों ने जिस कारण को पकड़ा, वह इनमें से कोई भी नहीं था। बल्कि यह दावा था , कि सिंधु घाटी के लोगों को गोरी चमड़ी वाले आर्यों की एक श्रेष्ठ जाति के आक्रमण द्वारा जीत कर दक्षिण की ओर खदेड़ दिया गया था।

आर्य आक्रमण सिद्धांत

जब व्हीलर इन स्थलों की खुदाई कर रहा था, तब पश्चिमी विद्वान 200 वर्षों से अधिक समय से भारत के वैदिक साहित्य का अनुवाद और व्याख्या कर रहे थे । उस समय यह सिद्धांत विकसित हुआ कि उपमहाद्वीप को किसी समय पर गोरी चमड़ी वाली जाति , जिसे आर्य के नाम से जाना जाता है , द्वारा जीत लिया गया था और जिन्होंने पूरे देश में उच्च संस्कृति की स्थापना की। यह सिद्धांत सबसे पहले 1786 ई. में एंग्लो-वेल्श भाषाशास्त्री सर विलियम जोन्स (एल. 1746-1794 ई.) के एक कार्य में सहज रूप से प्रकाशित हुआ और बाद में विकसित होता गया।जोन्स जो कि संस्कृत के शौकीन पाठक थे, ने पाया कि इसमें और यूरोपीय भाषाओं के बीच उल्लेखनीय समानताएं थीं इसलिए उन्होंने दावा किया कि उन सभी का एक सामान्य स्रोत होना चाहिए। इस स्रोत को उन्होंने प्रोटो-इंडो-यूरोपीयन का नाम दिया।

बाद में पश्चिमी विद्वानों ने, जो कि जोन्स के "सामान्य स्रोत" की पहचान करने की कोशिश कर रहे थे, यह निष्कर्ष निकाला कि उत्तर की ओर से -यूरोप के आसपास कहीं से एक गोरी चमड़ी वाली जाति ने दक्षिण की भूमि, विशेष रूप से भारत पर विजय प्राप्त की, संस्कृति की स्थापना की और अपनी भाषा और रीति-रिवाजों का प्रसार किया; भले ही चाहे वस्तुनिष्ठ रूप से इस दृष्टिकोण का समर्थन नहीं हो सका। जोसेफ आर्थर डी गोबिन्यू (जन्म 1816-1882 ई.) नामक एक फ्रांसीसी अभिजात्य लेखक ने 1855 ई. में अपने काम "मानव नस्लों की असमानता पर एक निबंध" में इस दृष्टिकोण को लोकप्रिय बनाया और दावा किया कि श्रेष्ठ, गोरी चमड़ी वाली नस्लों में "आर्यन रक्त" था और स्वाभाविक रूप से वह छोटी जातियों पर शासन करने के लिए प्रवृत्त थे।

आरंभिक ईरानियों ने स्वयं को आर्य के रूप में पहचाना । पहले इसका अर्थ "कुलीन" या "स्वतंत्र" या "सभ्य" था, जिसे बाद में यूरोपीय नस्लवादियों द्वारा अपने एजेंडे को पूरा करने के लिए भ्रष्ट कर दिया।

जर्मन संगीतकार रिचर्ड वैगनर (जन्म 1813-1883 ई.) ने गोबिन्यू की पुस्तक की प्रशंसा की और ब्रिटिश मूल के उनके दामाद, ह्यूस्टन स्टीवर्ट चेम्बरलेन (जन्म 1855-1927 ई.) ने इन विचारों को अपने कार्यों से और अधिक लोकप्रिय बना दिया । इसने अंततः एडॉल्फ हिटलर और नाज़ी विचारधारा के वास्तुकार, अल्फ्रेड रोसेनबर्ग (जन्म 1893-1946 ई.) को प्रभावित किया। इन नस्लवादी विचारों को एक जर्मन भाषाशास्त्री और विद्वान, मैक्स मुलर (एल. 1823-1900 ई.) द्वारा और अधिक वैधता प्रदान की गई, जो आर्य आक्रमण सिद्धांत के तथाकथित "लेखक" थे और जिन्होंने अपने सभी कार्यों में इस पर जोर दिया था कि आर्य का संबंध भाषाई भिन्नता से था और उसका जातीयता से कोई लेना-देना नहीं था।

हालाँकि, मुलर ने जो कहा वह शायद मायने नहीं रखता है, क्योंकि 1940 के दशक में जब व्हीलर साइटों की खुदाई कर रहा था, तब तक लोग 50 वर्षों से भी अधिक समय से इन सिद्धांतों में सांस ले रहे थे। अधिकांश विद्वानों, लेखकों और शिक्षाविदों को यह मानने में कई दशक लगेंगे कि 'आर्यन' मूल रूप से लोगों के एक वर्ग को संदर्भित करता है - जिसका नस्ल से कोई लेना-देना नहीं है - और, पुरातत्वविद् जे.पी. मैलोरी के शब्दों में, " एक जातीय पदनाम के रूप में [आर्यन] शब्द सबसे उचित रूप से इंडो-ईरानियों तक ही सीमित है” (फारूख, 17)। प्रारंभिक ईरानियों ने खुद को आर्य के रूप में पहचाना जिसका अर्थ था "कुलीन" या "स्वतंत्र" या "सभ्य" और यह शब्द 2000 से अधिक वर्षों तक उपयोग में जारी रहा जब तक कि इसे यूरोपीय नस्लवादियों ने अपने एजेंडे की पूर्ति के लिए भ्रष्ट नहीं कर दिया।

खुदाई के स्थलों के बारे में व्हीलर की व्याख्या ने आर्य आक्रमण सिद्धांत को सूचित किया और उसे मान्य किया । आर्यों को पहले से ही वेदों और अन्य कार्यों के लेखक के रूप में मान्यता दी जा चुकी थी, लेकिन इस क्षेत्र में उनकी तारीखें बहुत समय बाद की होने के कारण इस दावे का समर्थन नहीं कर पाईं कि उन्होंने ही इन प्रभावशाली शहरों का निर्माण किया था; शायद हो सकता है कि उन्होंने इन शहरों को नष्ट किया हो। निःसंदेह, व्हीलर, उस समय के किसी भी अन्य पुरातत्वविद् की तरह , आर्य आक्रमण सिद्धांत के बारे में जागरूक था और इस नज़रिए के माध्यम से, उसने जो कुछ भी पाया, उसकी व्याख्या इसके समर्थन के रूप में की। ऐसा करते हुए, उन्होंने इस सिद्धांत को मान्य किया और बाद में इसे अधिक लोकप्रियता और स्वीकृति मिली।

निष्कर्ष

आर्यन आक्रमण सिद्धांत, जिसे नस्लवादी एजेंडे वाले लोगों द्वारा उद्धृत और उन्नत किया जा रहा था,1960 के दशक में , मुख्य रूप से अमेरिकी पुरातत्वविद् जॉर्ज एफ. डेल्स के कार्यों के कारण , विश्वसनीयता खो बैठा । उन्होंने व्हीलर की व्याख्याओं की समीक्षा की, खुदाई स्थलों का दौरा किया, और इस सिद्धांत के समर्थन में उनहें कोई सबूत नहीं मिला। इसका समर्थन करने के लिए व्हीलर ने जिन कंकालों की व्याख्या युद्ध में हुई हिंसक मौत बताई थी, उनमें ऐसे कोई संकेत नहीं दिखे और न ही शहरों में युद्ध से जुड़ी कोई क्षति पाई गई।

इसके अलावा, उत्तर की ओर से किसी भी प्रकार की महान सेना की लामबंदी और न ही भारत में 1900 ई.पू. में किसी विजय का कोई सबूत था । फ़ारसी लोग - आर्य के रूप में अपनी पहचान बताने वाली एकमात्र जातीयता, स्वयं सी 1900 - सी. 1500 ईसा पूर्व के बीच ईरानी पठार पर अल्पसंख्यक थे और किसी भी प्रकार का आक्रमण करने की स्थिति में नहीं थे। इसलिए यह सुझाव दिया गया कि "आर्यन आक्रमण" वास्तव में संभवतः भारत-ईरानियों का प्रवास था, जो भारत के स्वदेशी लोगों के साथ शांतिपूर्वक विलय हो गए थे, उन्होंने अंतर्विवाह किए और वहॉं की संस्कृति में आत्मसात हो गए।

जैसे-जैसे सिंधु घाटी सभ्यता के स्थलों की खुदाई जारी रहेगी, निस्संदेह अधिक जानकारी मिलेगी जो इसके इतिहास और विकास को बेहतर समझने में योगदान देगी।संस्कृति की विशाल उपलब्धियों और उच्च स्तर की प्रोघोगि की और परिष्कार की मान्यता तेजी से रोशनी में आ रही है और अधिक ध्यान आकर्षित कर रही है। विद्वान जेफ़री डी. लॉन्ग ने सामान्य भावना व्यक्त करते हुए लिखा है , "उच्च स्तर की तकनीकी प्रगति के कारण इस सभ्यता के प्रति बहुत आकर्षण है" (198)। पहले से ही, सिंधु घाटी सभ्यता को मिस्र और मेसोपोटामिया के साथ प्राचीन काल की तीन महानतम सभ्यताओं में से एक के रूप में संदर्भित किया गया है, और भविष्य की खुदाई लगभग निश्चित रूप से इसकी प्रतिष्ठा को और भी अधिक ऊंचा कर देगी।

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सवाल और जवाब

क्या सिंधु घाटी सभ्यता विश्व की सबसे प्राचीन सभ्यता है?

सिंधु घाटी सभ्यता मेसोपोटामिया और मिस्र के साथ -साथ दुनिया की सबसे पुरानी सभ्यताओं में से एक है।

सिंधु घाटी सभ्यता किस लिए प्रसिद्ध है?

सिंधु घाटी सभ्यता हड़प्पा जैसे महान शहरों के लिए प्रसिद्ध है जो तकनीकी रूप से उन्नत और अत्यधिक सुसंस्कृत शहरी केंद्र थे।

सिंधु घाटी सभ्यता कब विकसित हुई?

सिंधु घाटी सभ्यता लगभग 7000 से 600 ईसा पूर्व के बीच फली-फूली।

सिंधु घाटी सभ्यता का अंत क्यों हुआ?

सिंधु घाटी सभ्यता का पतन लगभग 1900-1500 ईसा पूर्व के बीच शुरू हुआ, जो संभवतः जलवायु परिवर्तन के कारण हुआ, हालांकि इसके पतन के कारणों पर बहस अभी भी जारी है।

अनुवादक के बारे में

Ruby Anand
मैंने विज्ञान में बी.एस .सी. और सस्टेनेबल डिवैलपमैंट में एम.एस.सी. की है| मुझे यह बहुत दिलचस्प लगता है कि बीते हुए समय ने किस तरह इस दुनिया को , जिसमें आज हम रहते है, को आकार दिया है| इतिहास पर जानकारी के लिए worldhistory.org जानकारी का सबसे अच्छा स्तोत्र हैा

लेखक के बारे में

Joshua J. Mark
एक स्वतंत्र लेखक और मैरिस्ट कॉलेज, न्यूयॉर्क में दर्शनशास्त्र के पूर्व अंशकालिक प्रोफेसर, जोशुआ जे मार्क ग्रीस और जर्मनी में रह चुके हैं औरउन्होंने मिस्र की यात्रा की है। उन्होंने कॉलेज स्तर पर इतिहास, लेखन, साहित्य और दर्शनशास्त्र पढ़ाया है।

इस काम का हवाला दें

एपीए स्टाइल

Mark, J. J. (2020, October 07). सिंधु घाटी सभ्यता [Indus Valley Civilization]. (R. Anand, अनुवादक). World History Encyclopedia. से लिया गया https://www.worldhistory.org/trans/hi/1-10070/

शिकागो स्टाइल

Mark, Joshua J.. "सिंधु घाटी सभ्यता." द्वारा अनुवादित Ruby Anand. World History Encyclopedia. पिछली बार संशोधित October 07, 2020. https://www.worldhistory.org/trans/hi/1-10070/.

एमएलए स्टाइल

Mark, Joshua J.. "सिंधु घाटी सभ्यता." द्वारा अनुवादित Ruby Anand. World History Encyclopedia. World History Encyclopedia, 07 Oct 2020. वेब. 04 Jul 2024.