वेद धार्मिक ग्रंथ हैं जो हिंदू धर्म (जिसे सनातन धर्म के नाम से भी जाना जाता है और जिसका अर्थ है “शाश्वत व्यवस्था” या “शाश्वत मार्ग”) के साथ संबंधित हैं। वेद शब्द का अर्थ है “ज्ञान”,ऐसा माना जाता है कि इन ग्रंथों में अस्तित्व के अंतर्निहित कारण, कार्य और व्यक्तिगत प्रतिक्रिया से संबंधित मौलिक ज्ञान है।
सबसे पुराना न सही पर इन्हें दुनिया के सबसे पुराने धार्मिक कार्यों में से एक माना जाता है। इन्हें आम तौर पर "धर्मग्रंथ" के रूप में संदर्भित किया जाता है, जो इस मायने में सटीक है कि इन्हें ईश्वर की प्रकृति के बारे में पवित्र लेखन के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। हालाँकि, अन्य धर्मों के धर्मग्रंथों के विपरीत, वेदों को किसी विशिष्ट ऐतिहासिक क्षण में किसी निश्चित व्यक्ति या व्यक्तियों को प्रकट नहीं किया गया था। यह भी माना जाता है कि यह हमेशा से अस्तित्व में थे और लगभग 1500 ईसा पूर्व से पहले किसी समय गहन ध्यान अवस्था में ऋषियों द्वारा समझे गए ,लेकिन इसका निश्चित समय अज्ञात है।
यह वेद मौखिक रूप में मौजूद थे और कई पीढ़ियों तक गुरु से शिष्य तक आगे पहुँचते रहे, जब तक कि उन्हें भारत में लगभग 1500 - लगभग 500 ईसा पूर्व (तथाकथित वैदिक काल) के बीच लिखित रूप में प्रस्तुत नहीं किया गया। इन्हें मौखिक रूप से सावधानीपूर्वक संरक्षित किया जाता था। गुरु शिष्यों को इन्हें आगे-पीछे याद करवाते थे तथा मूलतः सुनी गई बातों को ज्यों का त्यों रखने के लिए सटीक उच्चारण पर जोर देते थे।
इसी लिए हिंदू धर्म में वेदों को श्रुति माना जाता है जिसका अर्थ है “जो सुना जाता है” जबकि अन्य ग्रंथों को स्मृति कहा जाता है (“जो याद किया जाता है”) जैसे कि महाभारत, रामायण और भगवद गीता जैसे ग्रंथ जिनमें महान नायकों और उनके संघर्षों का वर्णन है (हालांकि हिंदू धर्म के कुछ संप्रदाय भगवद गीता को श्रुति मानते हैं)। चार वेदों के ग्रंथ हैं:
- ऋग्वेद
- सामवेद
- यजुर्वेद
- अथर्ववेद
इनमें से प्रत्येक को उनके भीतर शामिल पाठ के अनुसार आगे विभाजित किया गया है:
- अरण्यक - अनुष्ठान, पालन
- ब्राह्मण - उक्त अनुष्ठानों पर टिप्पणियाँ
- संहिताएँ - आशीर्वाद, प्रार्थनाएँ, मंत्र
- उपनिषद - दार्शनिक कथाएँ और संवाद
उपनिषद वेदों में सबसे प्रसिद्ध और सबसे अधिक पढ़े जाने वाले वेद हैं क्योंकि उनका प्रवचन संवाद/कथात्मक रूप में प्रस्तुत किया गया है और ये सबसे पहले अन्य भाषाओं में अनुवादित किए गए थे।इसके विपरीत, चार वेदों को ईश्वर की शाब्दिक ध्वनियाँ माना जाता है, जिन्हें जब सुनाया या गाया जाता है, तो ये ध्वनियाँ ब्रह्मांड की मूल कंपन को फिर से पैदा करती हैं। तदनुसार, इनका अनुवाद करना वास्तव में असंभव है ।इसलिए अनुवाद में जो कुछ भी पढ़ा जाता है उसे अधिक से अधिक एक व्याख्या के रूप में ही समझना चाहिए।
रूढ़िवादी हिंदू संप्रदाय वेदों को एक महत्वपूर्ण आध्यात्मिक अधिकार के रूप में मान्यता देते हैं, लेकिन सभी हिंदू संप्रदाय इसका पालन नहीं करते हैं। 19वीं शताब्दी ई. से शुरू हुए आधुनिक युग में सुधार आंदोलनों ने शास्त्रों के अधिकार और परंपरा की तुलना में व्यक्तिगत धार्मिक अनुभव को अधिक महत्व दिया और इसलिए कुछ संप्रदाय या हिंदू धर्म की शाखाएँ (जैसे ब्रह्मोस आंदोलन) वेदों को पूरी तरह से अंधविश्वास के रूप में अस्वीकार करती हैं। फिर भी, आज भी इन कार्यों का पाठ, अध्ययन और पूजा जारी है और ये हिंदू धार्मिक अनुष्ठानों, त्योहारों और समारोहों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बने हुए हैं।
प्रारंभिक उत्पत्ति, तिथि निर्धारण और विकास
वेदों की उत्पत्ति के बारे में कोई नहीं जानता, हालाँकि कई विद्वानों और धर्मशास्त्रियों ने इस विषय पर अलग-अलग दावे किए हैं। यह सबसे आम तौर पर माना जाता है (हालाँकि किसी भी तरह से सार्वभौमिक रूप से स्वीकार नहीं किया जाता है) कि वैदिक दर्शन खानाबदोश आर्य जनजातियों के माध्यम से भारत में आया था, जो तीसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व के आसपास मध्य एशिया से यहाँ आए थे। "आर्यन" का अर्थ उसी तरह समझा जाना चाहिए जैसे कि उस समय के लोग समझते थे ; "स्वतंत्र" या "कुलीन"। यह लोगों का एक वर्ग था, न कि एक जाति और न ही कोकेशियान (जैसा कि 18वीं और 19वीं शताब्दी के पश्चिमी विद्वानों द्वारा दावा किया गया था)। माना जाता है कि ये इंडो-आर्यन एक बड़े समूह से अलग हो कर, जिसमें इंडो-ईरानी भी शामिल थे, आधुनिक ईरान के क्षेत्र में बस गए और पश्चिम में (यूनानियों के माध्यम से) फारसियों के रूप में जाने गए। प्रारंभिक ईरानी धर्म (और बाद में पारसी धर्म) और प्रारंभिक हिंदू धर्म के बीच समानताएं एक सामान्य विश्वास प्रणाली का सुझाव देती हैं, जो बाद में अलग-अलग विकसित हुए।
इंडो-आर्यन प्रवास सिद्धांत का मानना है कि वैदिक दर्शन मध्य एशिया में विकसित हुआ था और स्वदेशी हड़प्पा सभ्यता (लगभग 7000-600 ईसा पूर्व) के पतन के दौरान लगभग 2000-1500 ईसा पूर्व के बीच भारत लाया गया था, तथा उस संस्कृति के विश्वासों को स्थानीय विश्वासों के साथ मिला दिया गया था। हालाँकि, आउट ऑफ़ इंडिया (ओ आई टी ) के नाम से जाना जाने वाला एक अन्य सिद्धांत दावा करता है कि हड़प्पा सभ्यता ने पहले ही इस दर्शन को विकसित कर लिया था और इसे भारत से मध्य एशिया में निर्यात किया था, जहाँ से यह फिर इंडो-आर्यन के प्रवास के साथ भारत वापस आ गया।
कम से कम, दोनों दावों के पीछे प्रेरणा को पहचानने के लिए ठोस कारण हैं (हालाँकि मुख्यधारा के शिक्षाविदों ने ओ आई टी को अस्वीकार कर दिया है) और विद्वान वस्तुनिष्ठ, विद्वत्तापूर्ण शोध के आधार पर नहीं बल्कि किसी व्यक्तिगत कारण से इनमें से किसी एक दावे को अधिक मानते हैं। वेदों की उत्पत्ति और तिथि निर्धारण के प्रश्न का सबसे उचित उत्तर बस यही है कि - यह कोई नहीं जानता। हालाँकि, जो भी रहस्यमय प्रतीत होता है उसे हल करने की मानवीय आवश्यकता, वर्तमान समय में उससे संबंधित बहस को जीवित रखती है। विद्वान हरमन कुलके और डाइटमार रोदरमुंड तिथि निर्धारण/उत्पत्ति मुद्दे के प्रारंभिक विकास पर संक्षेप में टिप्पणी करते हैं:
इन ग्रंथों और उन्हें बनाने वाली संस्कृतियों की तिथि के बारे में इंडोलॉजिस्टों के बीच लंबे समय से बहस चल रही है। प्रसिद्ध भारतीय राष्ट्रवादी, बाल गंगाधर तिलक ने वेदों के आर्कटिक होम पर एक किताब लिखी जिसमें उन्होंने कहा कि वेदों का इतिहास छठी या पांचवीं सहस्राब्दी ईसा पूर्व का माना जा सकता है। उन्होंने अपने निष्कर्षों को इन ग्रंथों में की गई सितारों की स्थिति के संदर्भ में व्याख्या पर आधारित किया, जिसका उपयोग खगोलविदों द्वारा संबंधित तिथि की विस्तृत गणना के लिए किया जाता है। जर्मन इंडोलॉजिस्ट, हरमन जैकोबी, स्वतंत्र रूप से इससे मिलते हुए निष्कर्ष पर पहुंचे और उन्होंने वेदों की तिथि के रूप में पांचवीं सहस्राब्दी के मध्य का सुझाव दिया। लेकिन एक अन्य जर्मन इंडोलॉजिस्ट, मैक्स मुलर, जो ऑक्सफोर्ड में पढ़ा रहे थे, ने बहुत बाद की तिथि का अनुमान लगाया। उन्होंने बुद्ध के जन्म को 500 ईसा पूर्व के आसपास एक प्रस्थान बिंदु के रूप में लिया और सुझाव दिया कि उपनिषद, जो बौद्ध दर्शन से पहले के हैं, लगभग 800 से 600 ईसा पूर्व के आसपास लिखे गए होंगे। वेदों के आरंभिक ब्राह्मण और मंत्र ग्रंथ क्रमशः 1000 से 800 और 1200 से 1000 के आसपास लिखे गए होंगे। मैक्स मूलर द्वारा अनुमानित ये तिथियाँ आधुनिक पुरातात्विक शोध से बहुत मेल खाती हैं, जो सिंधु सभ्यता के पतन और एक नई खानाबदोश आबादी के प्रवास के बीच कम से कम आधी सहस्राब्दी का समय दिखाती हैं, जिसे वैदिक इंडो-आर्यों के साथ पहचाना जा सकता है। (34)
मुलर का काम आज भी बहस को प्रभावित करता है, और उनके दावों को आम तौर पर सबसे संभावित या निश्चित माना जाता है। वैदिक दर्शन की उत्पत्ति जहाँ भी हुई हो, और चाहे वह मौखिक रूप में कितने भी समय तक मौजूद रहा हो, यह भारत में इंडो-आर्यों के आगमन के बाद वैदिक काल के दौरान ही विकसित हुआ।
वैदिक काल
वैदिक काल (लगभग 1500 - लगभग 500 ईसा पूर्व) वह युग है जिसमें वेदों को लिखित रूप में प्रस्तुत किया गया, लेकिन इसका अवधारणाओं या मौखिक परंपराओं के युग से कोई लेना-देना नहीं है। "वैदिक काल" का नामकरण एक आधुनिक निर्माण है, जो इंडो-आर्यन प्रवास के साक्ष्य पर निर्भर करता है, जिसे, जैसा कि उल्लेख किया गया है, सार्वभौमिक रूप से स्वीकार नहीं किया जाता है। फिर भी, यह उपलब्ध साक्ष्य के आधार पर ऐतिहासिक रूप से सटीक के रूप में सबसे अधिक स्वीकृत सिद्धांत है। ग्रंथों के विकास का वर्णन विद्वान जॉन एम. कोलर द्वारा ऐसे किया गया है:
वैदिक युग की शुरुआत तब हुई जब संस्कृत-भाषी लोगों ने सिंधु घाटी में बसे लोगों के जीवन और विचार पर प्रभुत्व जमाना शुरू किया, संभवतः 2000 और 1500 ईसा पूर्व के बीच। अभी तक इतिहासकारों का यह मानना था कि ये संस्कृत-भाषी लोग, जो खुद को आर्य कहते थे, लगभग पैंतीस सौ साल पहले उत्तर-पश्चिम भारत में सिंधु घाटी में विजेता के रूप में आए थे। लेकिन हाल ही में विद्वानों ने आर्यों पर विजय प्राप्त करने की इस धारणा को चुनौती दी है।जो हम बिना किसी संदेह के जानते है वह यह है कि पहले की सिंधु संस्कृति, जो 2500 से 1500 ईसा पूर्व तक फली-फूली और जैसा उसके पुरातात्विक अवशेषों से पता चलता है कि यह संस्कृति काफी परिष्कृत थी, इस समय तक समाप्त हो गई थी। हम यह भी जानते हैं कि ऋग्वेद में परिलक्षित वैदिक विचार और संस्कृति का पिछले पैंतीस सौ वर्षों के दौरान भारत में प्रभुत्व का निरंतर इतिहास रहा है। यह संभावना है कि वैदिक लोगों की सांस्कृतिक परंपराएँ सिंधु लोगों की परंपराओं और रीति-रिवाजों के साथ घुल मिल गई हों। (5)
हड़प्पा सभ्यता के लोगों की धार्मिक मान्यताएँ अज्ञात हैं क्योंकि उन्होंने कोई लिखित कार्य नहीं छोड़ा है। मोहनजो-दारो, हड़प्पा और अन्य स्थलों पर खुदाई से एक अत्यधिक विकसित विश्वास संरचना का पता चलता है जिसमें अनुष्ठान स्नान और कुछ प्रकार की पूजा सेवा शामिल थी। धार्मिक विश्वास और अभ्यास का एकमात्र स्पष्ट प्रमाण यक्ष के रूप में जानी जाने वाली प्रकृति की आत्माओं की मूर्तियों से आता है जो लगभग 3000 ईसा पूर्व से पहले की हैं और पहली शताब्दी ईसा पूर्व तक अधिक परिष्कृत रूप में जारी रही।
यक्ष पंथों ने दैनिक ज़रूरतों पर ध्यान केंद्रित किया (यदि कोई पूर्वजों के पंथों की तर्ज पर साक्ष्य की व्याख्या करे तो) क्योंकि आत्माएँ दयालु या दुष्ट हो सकती हैं, और बलिदान या तो अनुग्रह के लिए या नुकसान से बचने के लिए किए जाते थे। एशियाई पूर्वजों के पंथों की तरह, मनुष्य कहाँ से आया, उसका उद्देश्य क्या हो सकता है, या मृत्यु के बाद वे कहाँ जाते हैं, इस बारे में “बड़ी तस्वीर” पर कोई ज़ोर नहीं दिया गया। ये वे प्रश्न थे जिन्हें वेदों में से पहले ऋग्वेद (जिसका अर्थ है “ज्ञान का ज्ञान”, “ज्ञान के श्लोक” या, शाब्दिक रूप से, “ज्ञान की प्रशंसा”) द्वारा संबोधित किया गया , जिसने अन्य तीन वेदों को सूचित किया।
वेद
जैसा कि उल्लेख किया गया है, सनातन धर्म (हिंदू धर्म) के अनुयायी मानते हैं कि वेद हमेशा से ही अस्तित्व में रहे हैं। विद्वान फॉरेस्ट ई. बेयर्ड और रेबर्न एस. हेमबेक के अनुसार:
हिंदू अपने सभी पवित्र ग्रंथों में से केवल वेदों को ही अलौकिक मूल वाले ग्रंथ मानते हैं। जीवन के आवश्यक ज्ञान को प्रकट करने के लिए केवल इन चार पुस्तकों पर ही भरोसा किया जाता है। हिंदुओं का मानना है कि ऐसा ज्ञान पूरे ब्रह्मांड में कंपन के रूप में अनंत काल से मौजूद रहा है। ये मायावी कंपन तब तक अज्ञात रहा जब तक अन्ततः आध्यात्मिक श्रवण से लैस कुछ भारतीय ऋषियों ने उन्हें लगभग 3,200 साल पहले सुना और संस्कृत भाषा में तैयार नहीं कर दिया । (3)
इसलिए वेदों को , सृष्टि के पैदा होने और उसके बाद , दोनों ही समय में ब्रह्मांड की सटीक ध्वनियों को पुन: प्रस्तुत करने वाला माना जाता है और इसलिए वे मुख्य रूप से भजनों और मंत्रों का रूप लेते हैं। वेदों का पाठ करने से, ऐसा माना जाता है कि व्यक्ति वस्तुतः ब्रह्मांड के रचनात्मक गीत में भाग ले रहा है जिसने समय की शुरुआत से सभी अवलोकनीय और अप्राप्य चीजों को जन्म दिया है। ऋग्वेद मानक और स्वर निर्धारित करता है जिसे सामवेद और यजुर्वेद द्वारा विकसित किया गया है जबकि अंतिम कार्य, अथर्ववेद, अपनी स्वयं की दृष्टि विकसित करता है जो है तो पहले के कार्यों से सूचित लेकिन अपना स्वयं का मूल मार्ग अपनाता है।
ऋग्वेद: ऋग्वेद सबसे पुराना ग्रंथ है, जिसमें 10 पुस्तकें (जिन्हें मंडल के नाम से जाना जाता है) हैं, जिनमें 10,600 श्लोकों के 1,028 भजन हैं। ये श्लोक उचित धार्मिक पालन और अभ्यास से संबंधित हैं, जो उन ऋषियों द्वारा समझे गए सार्वभौमिक कंपन पर आधारित हैं जिन्होंने उन्हें सबसे पहले सुना था, लेकिन साथ ही अस्तित्व के बारे में मौलिक प्रश्नों को भी संबोधित करते हैं। कोलर टिप्पणी करते हैं:
वैदिक विचारकों ने अपने बारे में, अपने आस-पास की दुनिया के बारे में और उसमें अपने स्थान के बारे में प्रश्न पूछे। विचार क्या है? इसका स्रोत क्या है? हवा क्यों चलती है? गर्मी और प्रकाश देने वाले सूर्य को आकाश में किसने रखा? यह कैसे संभव है कि पृथ्वी इन असंख्य जीवन-रूपों को जन्म देती है? हम अपने अस्तित्व को कैसे नवीनीकृत करते हैं और संपूर्ण बनते हैं? कैसे, क्या और क्यों के प्रश्न-यह दार्शनिक चिंतन की शुरुआत हैं। (5)
यह दार्शनिक चिंतन हिंदू धर्म के सार को दर्शाता है कि मानव अस्तित्व का उद्देश्य यह सवाल उठाना ही है ,जब भी व्यक्ति जीवन की बुनियादी जरूरतों से ऊपर उठ कर आत्म-साक्षात्कार और ईश्वर के साथ मिलन की ओर बढ़ता है। ऋग्वेद विभिन्न देवताओं - अग्नि, मित्र, वरुण, इंद्र और सोम - के भजनों के माध्यम से इस तरह के सवालों को प्रोत्साहित करता है, जिन्हें अंततः सर्वोच्च आत्मा, प्रथम कारण और अस्तित्व के स्रोत- ब्रह्म के अवतार के रूप में देखा जाएगा। कुछ हिंदू विचारधाराओं के अनुसार, वेदों की रचना ब्रह्म ने की थी, जिसका गीत बाद में ऋषियों ने सुना।
सामवेद: सामवेद ("राग ज्ञान" या "गीत ज्ञान") धार्मिक गीतों, मंत्रों और ग्रंथों का एक संग्रह है जिनका मतलब गाये जाने से है। इसकी सामग्री लगभग पूरी तरह से ऋग्वेद से ली गई है और जैसा कि कुछ विद्वानों ने देखा है, ऋग्वेद सामवेद की धुनों के बोल के रूप में कार्य करता है। इसमें 1,549 छंद शामिल हैं और इसे दो भागों में विभाजित किया गया है: गण (धुन) और अर्शिका (छंद)। माना जाता है कि धुनें नृत्य को प्रोत्साहित करती हैं जो शब्दों के साथ मिलकर आत्मा को ऊपर उठाती हैं।
यजुर्वेद: यजुर्वेद ("पूजा ज्ञान" या "अनुष्ठान ज्ञान") में पूजा सेवाओं में सीधे तौर पर शामिल किए जाने वाले पाठ, अनुष्ठान पूजा सूत्र, मंत्र और भजन शामिल हैं। सामवेद की तरह, इसका विषय ऋग्वेद से लिया गया है, लेकिन इसके 1,875 श्लोकों का ध्यान धार्मिक अनुष्ठानों की पूजा-पद्धति पर है। इसे आम तौर पर दो "खंडों" के रूप में माना जाता है जो अलग-अलग भाग नहीं हैं, बल्कि सम्पूर्णता का लक्षण हैं। "अंधकारमय यजुर्वेद" उन भागों को संदर्भित करता है जो अस्पष्ट और खराब तरीके से व्यवस्थित हैं, जबकि "प्रकाशमय यजुर्वेद" उन छंदों पर लागू होता है जो स्पष्ट और बेहतर तरीके से व्यवस्थित हैं।
अथर्ववेद: अथर्ववेद ("अथर्वण का ज्ञान") पहले तीन से काफी अलग है क्योंकि यह बुरी आत्माओं या खतरे को दूर करने के लिए जादुई मंत्रों, मंत्रों, भजनों, प्रार्थनाओं, दीक्षा अनुष्ठानों, विवाह और अंतिम संस्कार समारोहों और दैनिक जीवन पर टिप्पणियों से संबंधित है। माना जाता है कि इसका नाम पुजारी अथर्वन से लिया गया है, जो कथित तौर पर एक चिकित्सक और धार्मिक प्रवर्तक के रूप में प्रसिद्ध थे। ऐसा माना जाता है कि इस की रचना किसी व्यक्ति (संभवतः अथर्वन, लेकिन कम संभावना है) या व्यक्तियों द्वारा सामवेद और यजुर्वेद (लगभग 1200-1000 ईसा पूर्व) के समय में की गई थी। इसमें 730 भजनों की 20 पुस्तकें शामिल हैं, जिनमें से कुछ ऋग्वेद पर आधारित हैं। रचना की प्रकृति, प्रयुक्त भाषा और इसके स्वरूप के कारण कुछ धर्मशास्त्री और विद्वान इसे प्रामाणिक वेद के रूप में अस्वीकार करते हैं। वर्तमान समय में, कुछ हिंदू संप्रदाय इसे स्वीकार करते हैं, लेकिन सभी नहीं, क्योंकि यह बाद के ज्ञान से संबंधित है जिसे याद किया गया है ,न कि उस आदिम ज्ञान से , जिसे सुना गया था।
इनमें से प्रत्येक कार्य में ऊपर वर्णित अन्य प्रकार शामिल हैं - आरण्यक, ब्राह्मण, संहिता और उपनिषद - जिन्हें वास्तविक पाठ पर व्याख्या, विस्तार या टिप्पणियाँ माना जा सकता है।
उपनिषदों को “वेदों का अंत” माना जाता है क्योंकि वे ग्रंथों पर अंतिम शब्द हैं। उपनिषद शब्द का अर्थ है “एक साथ बैठना” जैसे कि एक छात्र अपने गुरु के साथ कुछ जानकारी प्राप्त करने के लिए करता है जो बाकी कक्षा के लिए अभिप्रेत नहीं है। प्रत्येक वेद में उपनिषद पाठ पर टिप्पणी करते हैं या संवाद और कथा के माध्यम से इसे चित्रित करते हैं जिससे कठिन या अस्पष्ट अंशों या अवधारणाओं को स्पष्ट किया जाता है।
निष्कर्ष
वेद, विशेष रूप से उपनिषद, ने अंततः सनातन धर्म की आधारभूत समझ का निर्माण कर उसके अनुयायियों के जीवन को दिशा और उद्देश्य प्रदान किया। यह समझ लिया गया कि एक ही इकाई थी, ब्रह्म, जिसने न केवल अस्तित्व का निर्माण किया बल्कि वह स्वयं ही अस्तित्व था। चूँकि यह इकाई मनुष्यों द्वारा समझी जाने के लिए बहुत बड़ी थी, इसलिए वह ब्रह्मा (निर्माता), विष्णु (संरक्षक) और शिव (संहारक) जैसे अवतारों के साथ-साथ अन्य देवताओं के समूह के रूप में प्रकट हुए, जो वास्तव में ब्रह्म ही थे। मानव जीवन का उद्देश्य अपने उच्च स्व (आत्मा) को पहचानना और अपने आपको पुनर्जन्म और मृत्यु (संसार) के चक्र से मुक्त करने के लिए उचित कर्म (कार्य) के साथ दिए गए धर्म (कर्तव्य) का पालन करना था, जो भौतिक दुनिया में अनुभव किए गए दुख और हानि की विशेषता थी। एक बार जब कोई व्यक्ति इन बंधनों को तोड़ देता है, तो उस व्यक्ति की आत्मा ब्रह्म और शाश्वत शांति में लौट आती है।
यह विश्वास प्रणाली 7वीं शताब्दी ई. में उत्तर भारत में इस्लाम के उदय होने तक निर्बाध रूप से विकसित हुई, जो 12वीं शताब्दी ई. तक स्पष्ट रूप से स्थापित हो गया था। इस्लामी शासन ने धीरे-धीरे हिंदू प्रथाओं को सहन करना शुरू किया। वैदिक दृष्टि के लिए एक और अधिक महत्वपूर्ण खतरा बाद में 18वीं-20वीं शताब्दी ई. में ब्रिटिश उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद के रूप में आया। अंग्रेजों ने भारतीय लोगों को प्रोटेस्टेंट ईसाई धर्म में परिवर्तित करने की कोशिश की और लोगों को फिर से शिक्षित करने और हिंदू धर्म को एक बुरे अंधविश्वास के रूप में खारिज करने में काफी प्रयास किए।
इसके परिणामस्वरूप अंततः राम मोहन रॉय (1772-1833 ई.) के नेतृत्व में ब्रह्मोस आंदोलन के रूप में एक प्रतिक्रिया हुई जिसे देबेंद्रनाथ टैगोर (1817-1905 ई., कवि रवींद्रनाथ टैगोर के पिता) जैसे अन्य लोगों ने जारी रखा, जिन्होंने आंशिक रूप से अपने विश्वास को पुनः परिभाषित करके उसे पारंपरिक रूप , जो बाहरी प्रभावों के कारण भ्रष्ट हो गया था, से अलग कर दिया। इस पुनर्कल्पना में धर्मग्रंथों के अधिकार को अस्वीकार करना शामिल था और वेदों का महत्व कम होने लगा। वास्तव में, ब्रह्मोस आंदोलन ने वेदों को निरर्थक अंधविश्वास के रूप में पूरी तरह से खारिज कर दिया और ईश्वर के साथ एक व्यक्तिगत अनुभव पर ध्यान केंद्रित किया जो वास्तव में प्रोटेस्टेंट ईसाई धर्म और मध्य युग के हिंदू भक्ति आंदोलन , दोनों की धार्मिक सोच से मिलता था।
वर्तमान समय में कोई भी हिंदू संप्रदाय या आंदोलन जो वेदों को अस्वीकार करता है, उसका मूल आधार 19वीं और 20वीं शताब्दी के आरंभिक प्रयासों , जैसे ब्रह्मोस , से लिया गया है। हालाँकि, रूढ़िवादी हिंदू आज भी वेदों को पहले की तरह ही उच्च मानते हैं, और उन लोगों द्वारा इन ग्रंथों का जप और गायन आज भी जारी है जो अभी भी उनमें एक ऐसे अवर्णनीय सत्य के रहस्य को पहचानते हैं । उनके माने, इस सत्य को बिना किसी आसान व्याख्या के प्रस्तुत किया गया है और जिसे बिना समझे अनुभव किया जा सकता है।