यूनानी दर्शन

परिभाषा

Joshua J. Mark
द्वारा, Ruby Anand द्वारा अनुवादित
13 October 2020 पर प्रकाशित 13 October 2020
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The School of Athens by Raphael (by Raphael, Public Domain)
राफेल द्वारा एथेंस का स्कूल
Raphael (Public Domain)

प्राचीन यूनानी दर्शन एक विचार प्रणाली है ,जो पहली बार छठी शताब्दी ईसा पूर्व में विकसित हुई, जिसमें देखने योग्य घटनाओं के प्राथमिक कारण पर ध्यान केंद्रित किया गया था। मिलिटस के थेल्स (१.सी.५८५ ईसा पूर्व ) द्वारा शुरू की गई इस प्रणाली के विकास से पहले, प्राचीन यूनान में यह समझा जाता था कि दुनिया को देवताओं ने बनाया है।

देवताओं के अस्तित्व को नकारे बिना, थेल्स ने सुझाव दिया कि अस्तित्व का प्राथमिक कारण पानी है। इस सुझाव पर अपवित्रता के आरोपों की कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई क्योंकि पानी ,जिसने एक जीवनदयी एजेंसी के रूप में पृथ्वी को घेर रखा है, यूनानी धर्म में पहले से ही देवताओं से जुड़ा हुआ था। थेल्स के अनुयायी, एनाकसीमेंडर (१.सी. ६१०-सी .५८५ ईसा पूर्व) और एनाकिसमनीज (१.सी.५४६ ईसा पूर्व) ने वास्तविकता की प्रकृति पर थेल्स द्वारा किए गए अध्ययन और परीक्षण को जारी रखते हुए प्राथमिक कारण के लिए अलग तत्वों का सुझाव भी दिया।

इन तीन व्यक्तियों ने एक ऐसी पूछताछ का मार्ग शुरू किया जिसे प्राचीन यूनानी दर्शन के नाम से जाना जाता है, जिसे तथाकथित पूर्व -सूकराती दार्शनिकों ने विकसित किया था। ये वह लोग थे जो थेल्स के पहले प्रयास से लेकर एथेंस के सुकरात ( १.४७०/५६९-३ ९९ ) तक दार्शनिक अटकलों और विचार के विभिन्न विघालयों के विकास में लगे हुए थे।सुकरात के सबसे प्रसिद्ध शिष्य प्लेटो ( १.४२४/४२३-३४८/३४७ ईसा पूर्व ) के अनुसार, उन्होंने न केवल प्राथमिक कारण को संबोधित करने के लिए दर्शनशास्त्र का दायरा बढ़ाया , बल्कि आदमी के स्वयं के हित और बढ़े समुदाय की भलाई के लिए आत्म सुधार में नैतिकता और नैतिक दायित्व की भूमिका को भी संबोधित किया।प्लेटो के काम ने उनके छात्र सटैगिरा के अरस्तू को अपना ख़ुद का स्कूल स्थापित करने के लिए प्रेरित किया जो प्लेटो के दृष्टिकोण से काफ़ी अलग, उसके स्वयं के दृष्टिकोण पर आधारित था।

आज के समय में यूनानी दर्शन दुनिया की विश्वास प्रणालियों, सांस्कृतिक मूल्यों और क़ानूनी संहिताओं का आधार है क्योंकि इसका उनके विकास में बहुत योगदान है।

अरस्तू आगे चलकर सिकन्दर महान ( १. ३५६- ३२३ ईसा पूर्व ) का शिक्षक बना, जिसने परशिया को जीतने के बाद ,यूनानी दर्शन के सिद्धांतों का सारे पूर्व में प्रचार ाकिया। आज की तुर्की से लेकर इराक़ और ईरान तक, रूस में से होते हुए नीचे भारत तक, और फिर वापस मिश्र की ओर जहाँ इसके प्रभाव से दर्शनशास्त्री प्लॉटिनस ( १.सी.२०२-२७४ सीई) द्वारा प्रतिपादित एक विचारधारा का विकास हुआ जिसे नियो-प्लेटिनिजम के नाम से जाना जाता है। प्लेटो के विचारों से प्रभावित इस विचारधारा के माने दिव्य मन और एक उच्चतर वास्तविकता है, जो अवलोकनीय संसार को सूचित करती है।इस विचार ने आगे चलकर पॉल द अपासटल (१.सी.५-६४ सी ई) की यीशु मसीह के मिशन और अर्थ की समझ और व्याख्या को प्रभावित कर ईसाई धर्म के विकास की नींव रखी।

अरस्तू के कार्य, जिसका ईसाई धर्म पर उतना ही प्रभाव पड़ा जितना कि प्लूटो के कार्यों का, ४वीं सदी सीई में इस्लाम की स्थापना होने पर इस्लामी विचार के निर्माण और यहूदी धर्म की धार्मिक अवधारणाओं के सूत्रीकरण में भी सहायक हुए। आज के समय में यूनानी दर्शन दुनिया की विश्वास प्रणालियों, सांस्कृतिक मूल्यों और क़ानूनी संहिताओं का आधार है क्योंकि इसका उनके विकास में बहुत योगदान है।

प्राचीन यूनानी धर्म

प्राचीन यूनानी धर्म का मानना था कि अवलोकनीय संसार और उसमें बनी हुई हर एक वस्तु का निर्माण देवताओं ने किया है जो अमर हैं और मानव प्राणियों के जीवन में व्यक्तिगत रूचि लेकर उनका मार्गदर्शन और सुरक्षा करते हैं ; बदले में, मानवता स्तुति और पूजा के माध्यम से अपने सरंक्षकों को धन्यवाद करती है , और यह अंतत: मंदिरों, पादरियों और धार्मिक संस्कारों के माध्यम से समाज का हिस्सा बन गए। यूनानी लेखक हेसॉइड ( १.८वीं सदी ईसा पूर्व ) ने अपने कार्य थियोगोनी में इस धारणा का ज़िक्र किया और यूनानी कवि होमर ( १.८वीं सदी ईसा पूर्व ) ने भी अपनी रचनाओं इलियड और ओडिसी में इसका पूरा वर्णन किया है।

मनुष्य के साथ-साथ पौधों और जानवरों का निर्माण भी माउंट ओलंपस के देवताओं ने किया था जो ऋतुओं को नियन्त्रित करते थे और जिन्हें अस्तित्व का प्रथमिक कारण माना जाता था। वह कहानियॉं, जिन्हें आज यूनानी पौराणिक कथाओं के नाम से जाना जाता है, जीवन के विभिन्न पहलुओं को समझने , देवताओं को कैसे समझना चाहिए और उनकी पूजा कैसे करनी चाहिए; यह सब समझाने के लिए विकसित हुई।इसलिए ऐसे सांस्कृतिक माहौल में प्राथमिक कारण की खोज के पीछे कोई बौधिक या आध्यात्मिक प्रेरणा नहीं थी क्योंकि वह पहले से ही स्थापित और परिभाषित था

The Titan Oceanus
टाइटन ओशनस
Mary Harrsch (CC BY-NC-SA)

यूनानी दर्शन की उत्पत्ति

मिलिटस का थेल्स एक सांस्कृतिक विपथन था जिसने प्राथमिक कारण की यूनानी सांस्कृति में दी गई धार्मिक परिभाषा को स्वीकार करने की बजाय प्राकृतिक दुनिया में ख़ुद से तर्कपूर्ण जॉच करने की कोशिश की, पीछे से देखने की कि प्राकृतिक दुनिया का अस्तित्व में आने का कारण क्या था? हालाँकि बादमें दार्शनिकों, इतिहासकारों और विशेष वैज्ञानिकों न यह सवाल उठाया कि थेल्स ने अपनी यह जाँच शुरू कैसे की? आधुनिक समय के विद्वान इस प्रश्न के उत्तर में आमतौर पर दो राय रखते हैं

  • थेल्स एक मौलिक विचारक थे जिन्होंने पूछताछ का एक नया तरीक़ा विकसित किया।
  • थेल्स का यह विचार उनके अपने बेबीलियन और मिस्र के स्तोत्रों में से विकसित हुआ।

थेल्स के समय में मिस्र का बेबीलोन सहित मेसोपोटामिया के साथ एक लंबे समय से व्यापार संबंध स्थापित हो चुका था तथा मेसोपोटामिया और मिस्र दोनों में यह मानना थी कि पानी अस्तित्व का अंतर्निहित तत्व है। बेबीलोन निर्माण कहानी ( एनुमा एलिश, लगभग १७५० ईसा पूर्व , लिखित रूप में) देवी तियामार ( जिसका अर्थ समुद् है) की कहानी बताती है।उसे देवता मदुरक से हार का सामना करना पड़ा , जिसने तियामार के अवशेषों से दुनिया का निर्माण किया।मिस्र की निर्माण कहानी में भी पानी को अराजकता के मूल तत्व के रूप में दिखाया गया है जिससे पृथ्वी उत्पन्न होती है, देवता एटम इसे नियंत्रण में लाया और व्यवस्था स्थापित हुई ,अंतत: अन्य देवताओं, जानवरों और मनुष्यों का निर्माण हुआ।

Greek Philosophers
यूनानी दर्शनशास्त्री
Amplitude Studios (Copyright)

यह लंबे समय से स्थापित है कि प्राचीन यूनानी दर्शन की शुरुआत एशिया माइनर के तट पर स्थित इओनिया के यूनानी उपनिवेशों में हुई थी चूँकि प्रथम तीनों पूर्व -सूकराती दार्शनिक आयोनिया के मिलिटस से आए थे और यह यूनान की पहली दार्शनिक विचारधाराथी। थेल्स ने सबसे पहले अपने दर्शन की कल्पना कैसे की, इसका मानक स्पष्टीकरण ऊपर दिया गया पहला सिद्धांत है। हालाँकि,दूसरा सिद्धांत वास्तव में अधिक अर्थपूर्ण है कयोंकि विचार का कोई भी स्कूल शून्य में विकसित नहीं होता है और ६वीं शताब्दी ईसा पूर्व की यूनानी संस्कृति में ऐसा कुछ भी नहीं है जो यह सुझाव दे कि अवलोकन योग्य घटनाओं के कारण को जानने में बौद्धिक जाँच को महत्व दिया गया था या प्रोत्साहित किया गया था।

पंडित जी.जी.एम ने उल्लेख किया है कि बाद के कई दर्शनशास्त्रीयों ने,पाइथागोरा से लेकर प्लेटो तक, कहा जाता है कि मिश्र में अध्ययन किया था और कुछ हद तक उन्होंने अपना दर्शन वहीं विकसित किया था।उनका सुझाव है कि थेल्स ने संभवत: मिस्र में अध्ययन किया और इस प्रथा को एक परंपरा के रूप में स्थापित किया होगा जिसका अन्य लोग ने अनुसरण किया। हालाँकि ऐसा हुआ हो, इसका निश्चित रूप से समर्थन करने के लिए कोई दस्तावेज़ नहीं है जबकि यह ज्ञात है कि थेल्स ने बेबीलोन में अध्ययन किया था। वहॉं अध्ययन के दौरान वह निश्चित रूप से मेसोपोटामिया और मिस्र के दर्शन से परिचित हुए होंगे और संभवत: यही उनका प्रेरणा का स्तोत्र था।

पूर्व सुकराती दार्शनिक

चाहे थेल्स ने पहले वास्तविकता की प्रकृति की तर्कसंगत और अनुभव से भरी जॉंच के बारे में अपना दृष्टिकोण विकसित किया पर उन्होंने एक बौद्धिक अंदोलन शुरू किया जिसने दूसरों को भी ऐसा करने के लिए प्रेरित किया। इन दार्शनिको को पूर्व सुकराती के रूप में जाना जाता है क्योंकि वे सुकरात से पहले के समय के हैं, और पंडित फ़ॉरेस्ट ई.बेयरड के सूत्रीकरण के अनुसार प्रमुख पूर्व सुकराती दार्शनिक यह थे:

  • मिलिटस के थेल्स - १.सी ५८५ ईसा पूर्व
  • अनाकिसमेंडर -१.सी ६१०- सी. ५४६ ईसा पूर्व
  • एनाकिसमनीज -१ सी.५४६ ईसा पूर्व
  • पाइथागोरस-१.सी ५७१ - सी. ५९७ ईसा पूर्व
  • कोलोफोन के जेनोफेनेस - १.सी.५७० - सी. ४७८ ईसा पूर्व
  • हरकलाइटिस - १.सी. ५०० ई.पू.
  • एलिया के परमेनाइड्स-१.सी. ४८५ ई.पू.
  • एलिया के जेनो-१.सी ४६५ ई.पू.
  • एमपीदोकलेस - १.सी. ४८४-४२४ ई.पू.
  • एनाकसागोरस- १.सी. ५००- सी. ४२८ ई.पू.
  • डेमोकृिटस - १.सी. ४६०- सी. ३७० ई.पू.
  • लयूसीपस - १.सी. ५वीं सदी ई.पू.
  • प्रोटागोरस- १.सी. ४८५- सी. ४१५ ई.पू.
  • गोरगियास- १.सी. ४२७ ई.पू.
  • करिटियस -१.सी. ४६०-४०३ ई.पू.

पहले तीन का ध्यान अस्तित्व के प्राथमिक कारण पर केंद्रित था। थेल्स का दावा था कि यह पानी है, परन्तु अनाकिसमेंडर ने इसे एपेरियन की उच्च अवधारणा “असीमित, असीम, अनंत या अनिश्चित” ( बेयरड, १०) - जो कि एक शाश्वत रचनात्मक शक्ती है, के पक्ष में ख़ारिज कर दिया ।एनाकिसमनीज का दावा था कि प्राथमिक कारण वायु है। उसका यह दावा उसी कारण पर आधारित था, जिस कारण से थेलस ने पानी चुना था: उसने महसूस किया कि वायु वह तत्व है जो विभिन्न रूपों में अन्य सभी का सबसे बुनियादी तत्व है।

पाइथागोरस ने प्राथमिक कारण की परिभाषा को अस्वीकार कर दिया , उसने अंक को सत्य बताया। अंकों का कोई आरंभ या अंत नहीं है और न ही दुनिया या व्यक्ति की आत्मा का। एक अमर आत्मा कई जन्मों से गुज़रती है, और यद्यपि उसका सुझाव था कि यह अंततः एक उच्च आत्मा ( परमात्मा) से मिल जाती है, उसने ईश्वर की क्या परिभाषा दी , यह स्पष्ट नहीं है।जेनोफेनेस ने इसका जवाब अपने इस दावे से दिया है कि केवल एक ईश्वर है जो संसार का प्राथमिक कारण है और शासक भी है। उसने शुद्ध आत्मा के रूप में ईश्वर की अद्वैतवादी दृष्टि के लिए औलंपियन देवताओं की मानवरूपी दृष्टि को ख़ारिज कर दिया।

Bust of Pythagoras
पाइथागोरस की प्रतिमा
Skies (CC BY-SA)

उनके एक युवा समकालीन , हेराकलीटस, ने इस दृष्टिकोण को ख़ारिज कर दिया और ‘ईशवर’ के स्थान पर ‘परिवर्तन’ कर दिया। उसके लिए जीवन एक प्रवाह है- परिवर्तन ही जीवन की परिभाषा है- और सभी चीज़ें अस्तित्व की प्रकृति के कारण ही अस्तित्व में आईं और चली गईं।

परमेनाइड्स ने इन दोनों के विचारों को अपने एलीटिक विचारधारा में इकट्ठा कर दिया जिसने अद्वैतवाद सिखाया। इसके माने, सभी अवलोकन योग्य वास्तविकता एक ही पदार्थ है जो बनाया नहीं जा सकता और अविनाशी है। परमेनाइड्स की इस विचार को उसके शिष्य एलिया के जेनो ने और आगे विकसित किया। उसने तार्किक विरोधाभासों की एक क्षृंखला बनाई ,यह साबित करने के लिए कि व्याप्कता इंद्रियों का भ्रम है और वास्तविकता वास्तव में एक समान है।

एमपीदोकलेस ने अपने पूर्ववर्तीओं के दर्शन के साथ अपना दर्शन जोड़ दिया। उसने दावा किया कि चारों तत्व प्राकृतिक शक्तियों के एक दूसरे से टकराने के कारण उत्पन्न हुए लेकिन प्रेम द्वारा क़ायम है और इस प्रेम की परिभाषा दी- एक रचनात्मक और पुनर्जीवित करने वाली शक्ती । एनाकसागोरस ने इस विचार को आधार बना कर अपनी , जैसे -और -न जैसे और “बीज” की अवधारणा को विकसित किया कि कुछ भी ऐसा नहीं हो सकता जैसा कि वह असल में न हो और हर चीज़ कणों ( बीजों ) से बनी होती है जो उस विशेष चीज़ का निर्माण करते हैं।

उसके “बीज” सिद्धांत ने लयूसीपस और उसके शिष्य डेमोकृिटस की परमाणु की अवधारणा के विकास को प्रभावित किया । उन्होंने सभी चीज़ें के मूल “बीज” पर ग़ौर करते हुए दावा किया कि पूरा ब्रह्मांड ‘अकाटनीय’ तत्वों से बना है जिन्हें उन्होंने एटमोस का नाम दिया। परमाणु की अवधारणा ने लयूसीपस को भाग्यवाद के अपने सिद्धांत के लिए प्रेरित किया कि जिस तरह परमाणु अवलोकन दुनिया का गठन करते हैं, उसी तरह उनका विघटन और सुधार एक व्यक्ति के भाग्य को निर्देशित करता है।

सोफिसटों ( मिथ्या हेतुवादीयों) ने ऐसे साधन सिखाए जिनसे किसी भी तर्क में ‘बुरे कारण को बेहतर दिखाया जा सकता है’।

इन दार्शनिकों ( और कई अन्य जिनका यहाँ उल्लेख नहीं किया गया है) के काम ने सोफ़िस्टिकों के पेशे के विकास को प्रोत्साहित किया । यह शिक्षित बुद्धिजीवी, एक क़ीमत के लिए, यूनान के उच्च वर्ग के युवाओं को तर्क जीतने के लिए अनुनय में कौशल की कला सिखाने के लक्ष्य से, उन्हें विभिन्न दर्शनों में निर्देश देते। प्राचीन यूनान में मुकदमें आम बात थी, ख़ास कर कि एथेंस में, और सोफिसटों के द्वारा प्रदान किए गए इस कौशल को बहुत ही महत्व दिया गया।जिस प्रकार पहले के दर्शनिकों ने ‘सामान्य ज्ञान’ को जिस रूप में स्वीकार किया गथा, के विरूद्ध तर्क दिया, उसी प्रकार सोफ़िस्टों ने वे साधन सिखाए जिनसे किसी भी तर्क में ‘बुरे कारण को बेहतर दिखाया जा सके”।

इनमें से सबसे प्रसिद्ध शिक्षक प्रोटागोरस, गोरगियास और करिटियास थे। प्रोटागोरस अपने इस दावे के लिए जाने जाते हैं कि “मनुष्य ही सभी चीज़ों का माप है”, हरएक चीज़ व्यक्तिगत अनुभव और व्याख्या से संबंधित है।गोरगियास ने सिखाया कि जिसे लोग “ज्ञान” कहते हैं केवल उनकी अपनी राय है और ज्ञान तो समझ से परे है।करिटियास, जो कि सुकरात का एक प्रारंभिक अनुयायी था, अपने इस तर्क के लिए जाना जाता है कि धर्म की रचना ताक़तवर और चतुर लोगों ने कमजोर और भोले-भाले लोगों को नियंत्रण में रखने के लिए की थी।

सुकरात, प्लेटो , और सुकराती स्कूल

कुछ लोगों की मानना है कि सुकरात एक प्रकार के सोफ़िस्ट थे, लेकिन उन्होंने बिना किसी पुरस्कार की आशा के स्वतंत्र रूप से पढ़ाया। सुकरात का अपना लिखा हुआ कुछ नहीं है, उनके दर्शन के बारे में जो भी आज ज्ञात है वह उनके दो शिष्यों प्लेटो और जेनाफान ( १.४३०- सी.३५४ ई.पू.) के काम से मिला और उनके दर्शन ने बाद में दार्शनिक विघालयों में जो रूप अपनाए , जिन्हें उनके दूसरे शिष्यों ने स्थापित किया था,जैसे कि एथेंस के एंटीसथनीज (१.सी.४४५- ३६५ईसा पूर्व), साइरीन के अरिसिटपस ( १.सी ४३५- ३५६ ई.पू) और अन्य।

सुकरात का ध्यान व्यक्तिगत चरित्र के सुधार पर केंद्रित था, जिसे उन्होंने “आत्मा” का नाम दिया , जो एक सदाचारी जीवन जीने के लिए ज़रूरी था। उनकी द्रष्टी को प्लेटो द्वारा उनके लिए किए गए दावे में संक्षिप्त किया गया है कि “बिना जाँचा गया जीवन जीने के लायक़ नहीं है” ( ऐपौलोजी ३८ बी) और इसलिए, किसी को कभी दूसरे से सीखा हुआ नहीं दोहराना चाहिए , बल्कि पहले यह जाँच करनी चाहिए कि उसका विश्वास किसमें है - और उसकी मान्यताएँ उसके व्यवहार को कैसे प्रभावित करती हैं - ताकि वह अपने आप को सही में जान सके और उचित व्यवहार कर सके। उनकी केंद्रीय शिक्षाएँ प्लेटो के चार संवादों में दी गई हैं, जो आमतौर पर द लासट डेज़ आफ सुकरात शीर्षक के तहत प्रकाशित हुई - यूथिफरो, एपोलॉजी, क्रिटो और फेडो- जिसमें एथेनियाई लोगों द्वारा उनके ऊपर लगाए गए अभद्रता और युवाओं को भ्रष्ट करने के आरोप, उनके मुकदमे, जेल में बिताए गए समय और फाँसी की सज़ा का वर्णन किया गया है।

Socrates Bust, British Museum
सुकरात की प्रतिमा, ब्रिटिश म्यूज़ियम
Osama Shukir Muhammed Amin (Copyright)

प्लेटो के अन्य संवाद- जिनमें से लगभग सभी में सुकरात को केंद्रीय पात्र के रूप में दिखाया गया है- सुकरात के वास्तविक विचार को प्रतिबिंबित करते भी हैं और नहीं भी। प्लेटो के समकालीनों ने भी दावा किया कि संवाद में दिखाई देने वाले “सुकरात” की उस शिक्षक से कोई समानता नहीं जिसे कि वह जानते थे। एंटीसथनीज ने सिनिक ( निंदक ) स्कूल की स्थापना की जिसने ज़िंदगी में सादगी पर - व्यवहार और चरित्र पर- ध्यान केंद्रित किया, और किसी भी विलासिता को जिंदगी का मूल तत्व मानने को नाकारने पर; जबकि अरिस्टिपस ने सुखवाद की साइरेनिक धारा की स्थापना की जिसमें विलासिता और आनंद को सर्वोच्च लक्ष्य माना गया , जिसकी हर किसी को आकांक्षा करनी चाहिए। यह दोनों ही प्लेटो की तरह सुकरात के शिष्य थे, परन्तु इनके और सुकरात के दर्शन में न के बराबर समानता है।

एतिहासिक सुकरात ने चाहे कुछ भी सिखाया हो, प्लेटो ने जिस दर्शन का श्रेय उसे दिया है वह सत्य के शाश्वत क्षेत्र ( रूपों का क्षेत्र) की अवधारणा पर आधारित है , दिखने वाली वास्तविकता जिसका केवल एक प्रतिबिंब है। सत्य, अच्छाई, सौंदर्य और अन्य अवधारणाएँ उसी सत्य के दायरे में मौजूद हैं, और जिसे लोग सच्चा, अच्छा या सुंदर कहते हैं वह केवल मात्र उनकी परिभाषा के प्रयास हैं। प्लेटो ने दावा किया कि “सच्चा झूठ” ( जिसे आत्मा में झूठ के रूप में भी जाना जाता है) को स्वीकार करने से लोगों की समझ धुँधली और सीमित हो गई, जिसके कारण उनका मानव जीवन के सबसे महत्वपूर्ण पहलुओं के बारे में ग़लत विश्वास पैदा हो गया।अपने आप को इस झूठ से मुक्त करने के लिए उसे एक उच्च अस्तित्व को पहचान कर , ज्ञान की खोज के माध्यम से अपनी समझ को उसके साथ संरेखित करना चाहिए।

अरस्तू और प्लॉटिनस

हो सकता है कि प्लेटो ने जानबूझ कर अपने दार्शनिक विचारों का क्षय सुकरात को दे दिया हो, उस हश्र से बचने के लिए जो उसके शिक्षक का हुआ था। सुकरात को अपवित्रता का दोषी ठहराया गया था और ३९९ ई. पू. में उसे फाँसी दे दी गई, जिससे उसके अनुयायी बिखर गए।प्लेटो ख़ुद मिश्र चला गया और उसने एथेंस लौटने से पहले कई स्थानों का दौरा किया। एथेंस में वापिस आकर उसने अपनी अकादमी स्थापित की और अपने संवाद लिखने शुरू किए। उसके नए विघालय के सबसे प्रसिद्ध शिष्यों में अरस्तू था जो मैसेडोनियन सीमा के पास स्थित सटैगिरा के रहने वाले निकोमैकस का पुत्र था।

अरस्तू न प्लेटो के रूपों के सिद्धांत को ख़ारिज कर दिया और दार्शनिक जाँच के लिए एक दूरसंचार दृष्टिकोण पर ध्यान केंद्रित किया जिसमें अंतिम अवस्था की जाँच कर प्राथमिक कारणों तक पहुँचा जाता है। उसका दावा था कि एक पेड़ की “ वृक्षता” पर विचार करने से यह नहीं जाना जा सकता कि एक बीज से वह पेड़ कैसे बना बल्कि इसके लिए उस पेड़ को देखना पड़ेगा , यह देखना होगा कि वह कैसे बढ़ता है, बीज किससे बना है , किस प्रकार की मिट्टी उसके बढ़ने के लिए बेहतर होगी।उसी तरह, आदमी कैसा होना “चाहिए” , यह मानवता से नहीं समझा जा सकता , बल्कि इसे समझने के लिए पहचानना होगा कि कोई कैसा है और एक आदमी व्यक्तिगत ढंग से कैसे सुधर सकता है।

Aristotle Bust by Lisippo
लिसिपो द्वारा अरस्तू की प्रतिमा
Mark Cartwright (CC BY-NC-SA)

अरस्तू की मानना थी कि मानव जीवन का संपूर्ण उद्देश्य ख़ुशी है। लोग इसलिए दुखी थे क्योंकि उन्होंने भौतिक संपत्ति को या ओहदा या रिश्तों को- जो सभी अस्थाई हैं- को स्थाई, शाश्वत संतुष्टि के साथ भ्रमित कर दिया था जोकि असल में अरेत ( व्यक्तिगत उत्कृष्टता ) को विकसित करने से मिलती है और जिससे आदमी को यूडेमोनिया ( अच्छी भावना से युक्त होना ) का अनुभव प्राप्त होता है। यूडेमोनिया प्राप्त कर लेने के बाद, कोई उसे खो नहीं सकता, और फिर दूसरों को इस अवस्था की ओर लेकर जाने में भी यह मददगार होता है। उनकी मानना थी कि प्राथमिक कारण एक शक्ति है , जिसे उन्होंने मुख्य चालक का नाम दिया- जो हर चीज़ को गति प्रदान करती है- लेकिन बाद में, जो चीज़ें गति में हैं, वह गति में ही रहेंगी।उनके लिए प्राथमिक कारण के बारे में चिंता करना इतना महत्वपूर्ण नहीं था जितना कि यह समझना कि अवलोकन योग्य दुनिया कैसे काम करती है और इस दुनिया मैं सबसे अच्छे ढंग से कैसे रहा जा सकता है।

अरस्तू सिकंदर महान का शिक्षक बना, जिसने आगे चलकर अरस्तू और उसके पूर्ववर्तियों के दार्शनिक विचारों का निकट के पूर्वीय जगत और भारत तक प्रचार किया , जबकि उसी समय पर अरस्तू ने एथेंस में अपना एक स्कूल, ल्यूसियम , खोला और वहाँ अपने विद्यार्थीओं को पढ़ाया। उसने अपने बाक़ी के जीवन में मानव विज्ञान के लगभग हर क्षेत्र और अनुशासन का परीक्षण किया और बाद के लेखकों द्वारा उसे द मास्टर के नाम से जाना गया।

इन लेखकों में से सभी ने उसके दर्शन को पूरी तरह से नहीं अपनाया, फिर भी, उनमें प्लॉटिनस था जिसने प्लेटो के आदर्शवाद और अरस्तू के दूरसंचार दृष्टिकोण के सर्वोच्च विचारों को नव- प्लैटोनिजम नामक दर्शन में संयोजित किया, जिसमें भारतीय, मिस्री और फ़ारसी रहस्यवाद के तत्व भी शामिल थे।इस दर्शन के विचार में, एक परम सत्य है- इतना महान कि उसे मानव मस्तिष्क से समझा नहीं जा सकता- और जिसका न तो निर्माण किया जा सकताहै, न ही उसे नष्ट नहीं किया जा सकता है और उसे कोई नाम भी नहीं दिया जा सकता; ने इसे नूस कह कर बुलाया जिसका अनुवाद है -दिव्य मन।

जीवन का लक्ष्य है आत्मा को इस दिव्य मन के पृति जागरूक करना और फिर उसके अनुसार जीवन जीना। जिसे लोग “बुराई” कहते हैं उसका कारण वास्तव में इस संसार की अनित्य वस्तुओं से लगाव है और यह भ्रम कि उनसे आदमी को ख़ुशी मिलती है; सच यह है कि वास्तव में “अच्छाई” इस भौतिक दुनिया के अस्थिर और अंततः असंतोषजनक स्वभाव को पहचान कर दिव्य मन पर ध्यान केंद्रित करना है , जो जीवन की सारी अच्छाई का मूल स्तोत्र है।

निष्कर्ष

प्लॉटिनस ने थेल्स के प्राथमिक कारण पर प्रश्न का उस उत्तर से दिया जिसमें वह दिव्य से हटने का प्रयास कर रहा था। प्राचीन यूनान के देवताओं की तरह, नूस एक आस्था थी जिसे साबित नहीं किया जा सकता, इसे केवल अपने विश्वास पर आधारित ,देखने योग्य घटना की व्याख्या से ही जाना जा सकता था।प्लॉटिनस का नूस की वास्तविकता पर ज़ोर देने का कारण था - कि कोई अन्य उत्तर उन्हें संतुष्ट नहीं कर पाया था। दुनिया में कुछ भी सच होने के लिए , सच का कोई स्तोत्र तो चाहिए, और यदि सब कुछ व्यक्ति विशेष से ही संबंधित है, जैसा कि परोटागोरस का दावा था, फिर सच्चाई जैसी कोई वस्तु है ही नहीं , केवल राय हो सकती है।प्लेटो की तरह,प्लॉटिनस ने प्रोटागोरस के विचारों को ख़ारिज कर दिया और इस विचार को स्थापित किया कि दिव्य मन न केवल सत्य का बल्कि समस्त जीवन और चेतना का स्तोत्र है।

उनके नव- प्लैटोनिक विचार ने आगे चलकर सेंट पॉल की ईसाई द्रष्टि के विकास में उनकी सोच को भी प्रभावित किया। ईसाई ईश्वर को पॉल ने प्लॉटिनस के नूस के समान ही समझा , लेकिन एक अस्पष्ट दिव्य मन के बजाय एक विशिष्ट चरित्र वाले एक व्यक्तिगत देवता के रूप में। अरस्तू की रचनाएँ, जिनका अनुवाद किया गया था और जो निकटीय पूर्व में बेहतर रूप से जानी गईं, ने इस्लामिक धर्म शास्त्र के विकास को प्रभावित किया जबकि यहूदी विद्वानों ने प्लेटो, अरस्तू और प्लॉटिनस को शामिल किया।

प्राचीन यूनानी दर्शनशास्त्र ने न केवल शुरू में सिकंदर महान की विजयों के माध्यम से ही बल्कि बाद के लेखकों द्वारा प्रसार से भी दुनिया भर के सांस्कृतिक मूल्यों को प्रभावित किया।आधुनिक नैतिकता की क़ानूनी संहिताएँ और धर्मनिरपेक्ष अवधारणाएँ , सब यूनानियों के दर्शन से प्राप्त हुई हैं। जिन्होंने कभी किसी एक भी प्राचीन यूनानी दर्शनशास्त्री का काम नहीं पढ़ा, वह भी किसी न किसी हद तक उनसे प्रभावित हुए हैं। थेल्स की प्राथमिक कारण की प्रारंभिक पूछताछ से लेकर प्लॉटिनस की जटिल तत्वमीमांसा तक, प्राचीन यूनानी दर्शनशास्त्र को प्रशंसनीय दर्शक मिलते गए जो , उनके समान , उनके द्वारा उठाए गए प्रश्नों के उत्तर ढूँढ रहे थे और इस फैलाव से , पश्चिम सभ्यता को सांस्कृतिक आधार मिला।

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सवाल और जवाब

दर्शनशास्त्र का अर्थ क्या है?

यह यूनानी शब्द ‘फिलो’ से बना है जिसका अर्थ है 'ज्ञान का प्रेम'

यूनानी दर्शन क्या है?

यूनानी दर्शन प्राचीन यूनानी दार्शनिकों द्वारा थेल्स ऑफ मिलिटस से लेकर अरस्तू तक विकसित विश्वासों की प्रणाली है।

सबसे प्रसिद्ध यूनानी दर्शनशास्त्री कौन से हैं?

तीन सबसे प्रसिद्ध यूनानी दर्शनशास्त्री - सुकरात, प्लेटो और अरस्तू हैं।

यूनानी दर्शन किस लिए महत्वपूर्ण है?

यूनानी दर्शन आधुनिक समय में कानूनी कोड, सांस्कृतिक मूल्यों और एकेश्वरवादी धर्मों की अंतर्निहित विश्वास प्रणालियों में अपने योगदान के लिए महत्वपूर्ण है।

अनुवादक के बारे में

Ruby Anand
मैंने विज्ञान में बी.एस .सी. और सस्टेनेबल डिवैलपमैंट में एम.एस.सी. की है| मुझे यह बहुत दिलचस्प लगता है कि बीते हुए समय ने किस तरह इस दुनिया को , जिसमें आज हम रहते है, को आकार दिया है| इतिहास पर जानकारी के लिए worldhistory.org जानकारी का सबसे अच्छा स्तोत्र हैा

लेखक के बारे में

Joshua J. Mark
एक स्वतंत्र लेखक और मैरिस्ट कॉलेज, न्यूयॉर्क में दर्शनशास्त्र के पूर्व अंशकालिक प्रोफेसर, जोशुआ जे मार्क ग्रीस और जर्मनी में रह चुके हैं औरउन्होंने मिस्र की यात्रा की है। उन्होंने कॉलेज स्तर पर इतिहास, लेखन, साहित्य और दर्शनशास्त्र पढ़ाया है।

इस काम का हवाला दें

एपीए स्टाइल

Mark, J. J. (2020, October 13). यूनानी दर्शन [Greek Philosophy]. (R. Anand, अनुवादक). World History Encyclopedia. से लिया गया https://www.worldhistory.org/trans/hi/1-11892/

शिकागो स्टाइल

Mark, Joshua J.. "यूनानी दर्शन." द्वारा अनुवादित Ruby Anand. World History Encyclopedia. पिछली बार संशोधित October 13, 2020. https://www.worldhistory.org/trans/hi/1-11892/.

एमएलए स्टाइल

Mark, Joshua J.. "यूनानी दर्शन." द्वारा अनुवादित Ruby Anand. World History Encyclopedia. World History Encyclopedia, 13 Oct 2020. वेब. 18 Nov 2024.