बौद्ध धर्म एक गैर आस्तिक धर्म है (जिसका ईश्वर के निर्माता के रूप में कोई विश्वास नहीं), जिसे एक दर्शन और नैतिक अनुशासन भी माना जाता है।इस धर्म की उत्पत्ति 5वीं और 6 वीं शताब्दी ईसा पूर्व में भारत में हुई ।इसकी स्थापना ऋषि सिद्धार्थ गौतम (बुद्ध १.सी. ५६३- सी. ४८३ ईसा पूर्व ) ने की थी, जो एक किंवदंती के अनुसार एक हिंदू राजकुमार थे।
आध्यात्मिक सन्यासी बनने के लिए अपना पद और धन त्यागने से पहले, सिद्धार्थ अपनी पत्नी और परिवार के साथ एक कुलीन व्यक्ति के रूप में आराम से रहते थे लेकिन जैसे ही उन्होंने मानवीय पीड़ा के बारे में जाना, तो उन्हें लगा कि उन्हें लोगों के दर्द को कम करने का कोई तरीका खोजना होगा।उन्होंने एक प्रबुद्ध व्यक्ति बनने के लिए सख्त आध्यात्मिक अनुशासन का पालन किया और फिर दूसरों को वे साधन सिखाए जिनके द्वारा वे संसार से; दुख, पुनर्जन्म और मृत्यु के चक्र से छुटकारा पा सके।
बुद्ध ने यह विश्वास प्रणाली उस समय विकसित की जब प्रचीन भारत महत्वपूर्ण धार्मिक और दार्शनिक सुधार के दौर में से गुज़र रहा था।बौद्ध धर्म शुरू में उन विचारधाराओं में से एक थी जो लोगों की जरूरतों को पूरा करने में रूढ़िवादी हिंदू धर्म की विफलता के जवाब में विकसित हुई थीं।मौर्य साम्राज्य (322-185 ईसा पूर्व) के अशोक महान (268-232 ईसा पूर्व) के शासनकाल तक यह एक अपेक्षाकृत छोटी विचार प्रणाली बना रहा। अशोक ने न केवल इस विश्वास को अपनाया ही बल्कि पूरे भारत तथा मध्य और दक्षिण पूर्व एशिया में फैलाया भी।
बौद्ध धर्म की केंद्रीय दृष्टि को इसके केंद्रीय पवित्र ग्रंथों में से एक, धम्मपद के चार छंदों में संक्षेपित किया जा सकता है:
हमारा जीवन हमारे मन से बनता है ; हम जैसा सोचते हैं वैसा बन जाते हैं। दुख एक बुरे विचार का अनुसरण करता है जैसे गाड़ी के पहिये उसे खींचने वाले बैलों का अनुसरण करते हैं।
हमारा जीवन हमारे मन से बनता है ; हम जैसा सोचते हैं वैसा बन जाते हैं।आनंद शुद्ध विचार का उस छाया की तरह अनुसरण करता है जो कभी नहीं छूटती ( l.1-2)
इच्छा से दुःख उत्पन्न होता है, इच्छा से भय उत्पन्न होता है।जो इच्छा से मुक्त है वह न तो दुःख जानता है और न ही भय ।
कामना की वस्तुओं के प्रति आसक्ति दुःख लाती है, कामना की वस्तुओं के प्रति आसक्ति भय लाती है। जो आसक्ति से मुक्त है वह न तो दुःख जानता है और न ही भय (XVI.212-213)
बुद्ध को यह समझ में आ गया कि इच्छा और आसक्ति दुख का कारण बनते है तथा मनुष्य कष्ट भोगता है क्योंकि वह अस्तित्व की वास्तविक प्रकृति से अनभिज्ञ है।लोग जीवन के स्थायी होने पर जोर देते हैं और परिवर्तन का विरोध करते हैं ; जिसे वे जानते हैं उससे चिपके रहते हैं और जो खो देते हैं, उसका शोक मनाते हैं। बिना कष्ट के जीने के साधन की तलाश में, बुद्ध ने यह जाना कि जीवन निरंतर परिवर्तन है, कुछ भी स्थायी नहीं है और व्यक्ति आध्यात्मिक अनुशासन के माध्यम से आंतरिक शांति पा सकता है । आध्यात्मिक अनुशासन जीवन की क्षणभंगुरता में सुंदरता को पहचानता है और साथ ही मनुष्य को अनित्य वस्तुओं, लोगों और स्थितियों के प्रति लगाव में फंसने से भी रोकता है।उनकी शिक्षाएं , जो बौद्ध विचार की नींव हैं; चार महान सत्य, बनने का पहिया और अष्टांगिक मार्ग पर केंद्रित हैं । यही बौद्ध धर्म के विभिन्न विचार धाराओं के केंद्र में हैं जो आधुनिक समय में भी जारी हैं।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
छठी और पांचवीं शताब्दी ईसा पूर्व ,जब भारत में धार्मिक और दार्शनिक सुधार की लहर चल रही थी, तब लोगों की हिंदू धर्म (सनातन धर्म, "सनातन व्यवस्था") में प्रमुख आस्था थी।विद्वान जॉन एम. कोल्लर के अनुसार "कृषि जीवन से लेकर ,शहरी व्यापार और विनिर्माण तक एक बहुत बड़ा सामाजिक परिवर्तन चल रहा था, जिससे पुराने मूल्यों, विचारों और संस्थानों पर सवाल उठने लगे" (46)। हिंदू धर्म वेदों के रूप में जाने जाने वाले ग्रंथों की स्वीकृति पर आधारित था, जिन्हें ब्रह्मांड की शाश्वत उत्पत्ति माना जाता था।ऐसा माना जाता था कि वेदों की रचना किसी व्यक्ति ने नहीं की थी बल्कि उन्हें अतीत में एक निश्चित समय पर ऋषियों द्वारा "सुना" गया था।
हिंदू पुजारियों ने उन वेदों को संस्कृत भाषा में प्राप्त किया और लोगों को सुनाया, एक ऐसी भाषा जिसे लोग नहीं समझते थे। उस समय के विभिन्न दार्शनिक विचारकों ने इस प्रथा और विश्वास संरचना की वैधता पर सवाल उठाने शुरू कर दिए।कहा जाता है कि इस समय में दर्शनशास्त्र की कई अलग-अलग विचार प्रणालीयॉं विकसित हुईं (जिनमें से अधिकांश जीवित नहीं रही) जिन्होंने या तो वेदों के अधिकार को स्वीकार किया या अस्वीकार कर दिया।जो लोग रूढ़िवादी हिंदू दृष्टिकोण और परिणामी प्रथाओं को स्वीकार करते थे उन्हें आस्तिक ("वह मौजूद है") के रूप में जाना जाता था और जो लोग रूढ़िवादी दृष्टिकोण को खारिज करते थे उन्हें नास्तिक ("वह मौजूद नहीं है") के रूप में जाना जाता था। इस काल में जीवित रह जाने वाले नास्तिक विचारधारा के तीन पंथ थे चार्वाक, जैन धर्म और बौद्ध धर्म।
बुद्ध ने माना कि चार्वाक और जैन धर्म दोनों ही चरम सीमाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं । उन्होंने एक अलग मार्ग खोजा और उसे"मध्य मार्ग" का नाम दिया। हिंदू धर्म का मानना था कि एक सर्वोच्च व्यक्ति है जो इस ब्रह्मांड को नियंत्रित कर रहा है । उसे ब्राह्मण के रूप में जाना जाता है और जो स्वयं ब्रह्मांड है । यही वह व्यक्ति है जिसने मानवता को वेदों की शिक्षा दी थी। मनुष्य के जीवन का उद्देश्य निर्धारित ईश्वरीय आदेश के अनुसार जीना और उचित कर्म के साथ अपना धर्म (कर्तव्य) निभाना है ताकि अंततः उसे पुनर्जन्म और मृत्यु (संसार) के चक्र से मुक्ति मिल सके ; जिस बिंदु पर व्यक्तिगत आत्मा ओवरसोल ( परम आत्मा) के साथ मिलन प्राप्त कर ,पूर्ण मुक्ति और शांति का अनुभव कर सकेगी।
चार्वाक ने इस विश्वास को अस्वीकार कर दिया और इसके स्थान पर भौतिकवाद की पेशकश की। इसके संस्थापक, बृहस्पति (एल. सी. 600 ईसा पूर्व) ने दावा किया कि लोगों के लिए हिंदू पुजारियों की इस बात को स्वीकार करना हास्यास्पद था कि एक ऐसी भाषा ,जो लोगों की समझ से बाहर है, भगवान का शब्द है । उन्होंने सत्य का पता लगाने और आनंद को जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य मान कर उसकी खोज के लिए , प्रत्यक्ष धारणा के आधार पर एक विचार धारा की स्थापना की .महावीर (जिन्हें वर्धमान के नाम से भी जाना जाता है, 599-527 ईसा पूर्व) ने इस विश्वास के आधार पर जैन धर्म का प्रचार किया कि व्यक्तिगत अनुशासन और नैतिक संहिता के सख्त पालन से बेहतर जीवन मिलता है और मृत्यु के बाद संसार से मुक्ति मिलती है। बुद्ध ने माना कि ये दोनों रास्ते चरम सीमाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं और उनके बीच का एक मार्ग पाया और उन्होंने उसे “ मध्य मार्ग” का नाम दिया।
सिद्धार्थ गौतम
बौद्ध परंपरा के अनुसार, सिद्धार्थ गौतम का जन्म लुंबिनी (आधुनिक नेपाल) में हुआ था और वह एक राजा के पुत्र की तरह पल कर बड़ा हुआ ।एक द्रष्टा की भविष्यवाणी सुन कर कि वह या तो एक महान राजा बनेगा या फिर यदि वह पीड़ा या मृत्यु देखेगा तो आध्यात्मिक नेता बनेगा; उसके पिता ने अस्तित्व की हर कठोर वास्तविकता से से उसे दूर रखने की कोशिश की। सिद्धार्थ का विवाह हुआ , उसका एक पुत्र था और उसे अपने पिता के उत्तराधिकारी के रूप में राजा बनने के लिए तैयार किया गया । एक दिन ( कुछ संस्करणों में कुछ दिन ) वह सारथी के साथ महल के परिसर ,जहाँ उसने 29 साल बिताए थे ,से बाहर निकला तो उसका सामना ज़िंदगी की सच्चाईयों से हुआ जिन्हें चार संकेतों के रूप में जाना जाता है:
- एक बूढ़ा आदमी
- एक बीमार आदमी
- एक मरा हुआ आदमी
- एक तपस्वी
पहले तीन के बारे में जब उसने अपने सारथी से पूछा, "क्या मैं भी इस सब के अधीन हूँ?” तो सारथी ने उसे आश्वासन दिया कि हर कोई बूढ़ा होता है, हर कोई किसी न किसी समय बीमार होता है और हर किसी की मौत निश्चित है।सिद्धार्थ परेशान हो गए क्योंकि उसे एहसास हुआ कि वह जिससे प्यार करता है, उसकी सभी अच्छी चीजें खो जाएंगी और वह खुद भी एक दिन ऐसे ही नष्ट हो जाएगा।
जब उसने सड़क के किनारे, पीले वस्त्र पहने एक मुंडे सिर वाले तपस्वी को मुस्कुराते हुए देखा, तो उससे पूछा कि वह अन्य पुरुषों की तरह क्यों नहीं है ? तपस्वी ने समझाया कि वह चिंतन, करुणा और अनासक्ति से भरा शांतिपूर्ण जीवन बिता रहा है। इस घटना के कुछ ही समय बाद, सिद्धार्थ ने तपस्वी के उदाहरण का अनुसरण करने के लिए अपनी संपत्ति, पद और परिवार को छोड़ दिया।
सबसे पहले उसने एक प्रसिद्ध शिक्षक की तलाश की, जिससे उन्होंने ध्यान की तकनीकें सीखीं, लेकिन इससे उसे चिंता या पीड़ा से मुक्ति नहीं मिली। एक दूसरे शिक्षक ने उसे सिखाया कि अपनी इच्छाओं को कैसे दबाया जाए और चेतना को कैसे निलंबित किया जाए, लेकिन यह भी कोई समाधान नहीं था क्योंकि यह मन की स्थायी स्थिति नहीं थी। उसने अन्य तपस्वियों की तरह जीने की कोशिश की, संभवतः जैन अनुशासन का अभ्यास भी किया, लेकिन यह भी उसके लिए पर्याप्त नहीं था। आख़िरकार, उसने भूखे रहकर, दिन में केवल चावल का एक दाना खाकर, शरीर की ज़रूरतों को पूरा करने से इनकार करने का फैसला कर लिया। उसका शरीर इतना क्षीण हो गया कि उसे पहचानना भी मुश्किल हो गया।
किंवदंती के एक संस्करण के अनुसार, इस स्थिति में, या तो एक नदी में उसे मध्य मार्ग का रहस्योद्घाटन प्राप्त हुआ। कहानी के एक दूसरे संस्करण के मानते, सुजाता नाम की एक दूधवाली अपने गांव के पास जंगल में सिद्धार्थ के पास आती है और उसे खीर देती है, जिसे वह स्वीकार कर लेता है। इस तरह उसकी कठोर तपस्या की अवधि समाप्त हो गई तथा उन्हें “मध्य मार्ग” के विचार की झलक मिल गई। वह पास के गांव बोधगया में एक बोधि वृक्ष के नीचे घास के बिस्तर पर जाकर बैठ जाता है, और कसम खाता है कि या तो वह दुनिया में जीने का सबसे अच्छा ढंग क्या है , इसे जान लेगा , नहीं तो वह मर जाएगा।
उसने रोशनी की एक झलक में समझ लिया, कि मनुष्य के कष्ट का कारण है कि वह इस निरंतर परिवर्तन वाली दुनिया को स्थायी मान कर एक भ्रम में जीता है। आदमी ने अपनी पहचान , जिसे उसने "स्वयं" का नाम दिया है, से बना रखी है और वह मानता है कि यह कभी नहीं बदलेगी। वह मानता है कि सभी पदार्थ , जैसे कि कपड़े और वस्तुएं, जिन्हें वह "अपनी" मानता है और दूसरों के साथ उसने जो रिश्ते बनाए हैं ; यह सब कुछ हमेशा के लिए रहने वाला है। लेकिन वास्तव में इनमें से कुछ भी सच नहीं है। जीवन की प्रकृति, यह संपूर्ण जीवन, एक परिवर्तन है और इस बात को पहचान कर ( और मान कर) इस पर कार्य करना; यही दुख से बचने का तरीका है ।उस क्षण वह बुद्ध हो गया ("जागृत व्यक्ति" या "प्रबुद्ध व्यक्ति") और अज्ञान और भ्रम से मुक्त हो गया।
पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने के बाद, सभी चीजों की अन्योन्याश्रित और क्षणिक प्रकृति को पहचानते हुए, उन्होंने पहचाना कि अब वह बिना किसी कष्ट के अपनी इच्छानुसार जी सकते हैं और जो चाहें कर सकते हैं। उन्होंने जो सीखा था उसे वह दूसरों को सिखाने में झिझक रहे थे क्योंकि उन्हें लगा कि लोग उसे स्वीकार नहीं करेंगे लेकिन अंततः उन्हें यकीन हो गया कि उन्हें यह प्रयास करना होगा।इसलिए उन्होंने सारनाथ के डियर पार्क में अपना पहला उपदेश दिया, जहां उन्होंने पहली बार चार आर्य सत्यों का और अष्टांगिक मार्ग का वर्णन किया जो व्यक्ति को भ्रम और पीड़ा से ज्ञान और आनंद की ओर ले जाता है।
इसे ध्यान में रख लेना चाहिए कि बुद्ध की भ्रम से चेतनय तक की यात्रा की यह कहानी विश्वास प्रणाली की स्थापना के बाद उनके अनुरूप बनाई गई थी । इसलिए यह कहना कठिन होगा कि बुद्ध के प्रारंभिक जीवन और जागृति के बारे में जो कहा गया है , उसमें कितनी वास्तविकता है।विद्वान रॉबर्ट ई. बसवेल, जूनियर और डोनाल्ड एस. लोपेज़, जूनियर लिखते हैं कि प्रारंभिक बौद्ध "कुछ हद तक यह प्रदर्शित करने की आवश्यकता से प्रेरित थे कि बुद्ध ने जो सिखाया वह किसी व्यक्ति का नवाचार नहीं था, बल्कि एक कालातीत की पुनः खोज थी" ; ताकि यह विश्वास प्रणाली , हिंदू धर्म और जैन धर्म (149) के समान , आयोजित प्राचीन और दिव्य उत्पत्ति होने का दावा कर सके। आगे जारी रखते हुए बसवेल और लोपेज़ लिखते हैं:
इस प्रकार, उनकी जीवनियों में, अतीत और भविष्य के सभी बुद्धों को समान चीजें करते हुए चित्रित किया गया है। वे सभी अपनी माँ के गर्भ में पालथी मार कर बैठते हैं; वे सभी महाद्वीप के "मध्य देश" में पैदा हुए हैं; अपने जन्म के तुरंत बाद, वे सभी उत्तर की ओर सात कदम चलते हैं; चार दर्शन करने और पुत्र प्राप्ति के बाद वे सभी संसार त्याग देते हैं; वे सभी घास के बिस्तर पर बैठकर ज्ञान प्राप्त करते हैं। (149)
हालाँकि हो सकता है, कि सिद्धार्थ की यात्रा और आध्यात्मिक जागृति की कथा पहले मौखिक परंपरा में प्रसिद्ध हुई हो तथा फिर उनकी मृत्यु के लगभग 100 साल बाद से तीसरी शताब्दी ईस्वी तक इसका उल्लेख लिखित कार्यों में किया गया या उनमें शामिल किया गया हो, जब यह ललितविस्तार सूत्र में पूर्ण रूप से दिखाई देता है। यह कहानी तब से दोहराई जा रही है और किसी विकल्प के अभाव के कारण, अधिकांश बौद्धों द्वारा इसे सच मान लिया गया है।
शिक्षाएँ और मान्यताएं
जैसा कि उल्लेख किया गया है, सिद्धार्थ को उसकी खोज पर इस एहसास ने चलाया था कि वह सब कुछ जिसे वह प्यार करता था, एक दिन खो देगा और इससे उसे पीड़ा होगी। इस अहसास से उन्हें समझ आ गया कि जीवन कष्टमय है। हर किसी को जन्म के समय कष्ट सहना पड़ता है ( जैसे हर किसी की माँ को भी ) और उसके बाद इन सब जीवन भर कष्ट सह कर -जो कुछ उसके पास नहीं है, उसकी लालसा , जो उसके पास है उसे खोने के डर , जो कभी उसके पास था उसके खो जाने का शोक ; और अंत में मरकर सब कुछ खो देना तथा फिर से वही प्रक्रिया को दोहराने के लिए पुनर्जन्म लेना ।
जीवन पीड़ा के अलावा कुछ और भी हो, इसके लिए हर एक को जीने का ऐसा तरीका खोजना होगा , जिससे वह जीवन को एक निश्चित रूप में पकड़ कर रखने की इच्छा के बिना जी सके। हर एक को जीवन की चीज़ों के साथ अपना लगाव छोड़ना होगा लेकिन साथ साथ , जीवन के जो सही मूल्य हैं, उनकी सराहना करने में सक्षम होना होगा। आत्मज्ञान प्राप्त करने के बाद, उन्होंने जीवन की प्रकृति पर अपना विश्वास चार आर्य सत्यों में व्यक्त किया:
- जीवन कष्टमय है
- दुःख का कारण तृष्णा है
- दुख का अंत तृष्णा के अंत के साथ होता है
- एक रास्ता है जो व्यक्ति को लालसा और पीड़ा से दूर ले जाता है
चार सत्यों को मूल आर्य में “महान" कहा जाता है , साथ में "सम्मान के योग्य" भी , लेकिन यह “ध्यान देने योग्य" का सुझाव भी देता है।चौथे सत्य में जिस मार्ग का उल्लेख किया गया है वह अष्टांगिक मार्ग है जो व्यक्ति को लगाव, जो कि कष्टों का मूल कारण है, के बिना जीवन जीने का मार्गदर्षन करता है :
- सम्यक दृष्टि
- सम्यक संकल्प
- सम्यक वाणी
- सही कर्म
- सही आजीविका
- सही प्रयास
- सही सचेतना
- सही एकाग्रता
कोल्लर के अनुसार, पहले तीन का संबंध ज्ञान से है, अगले दो का संबंध आचरण से है, और अंतिम तीन का संबंध मानसिक अनुशासन से है। आगे जारी रखते हुए वे लिखते हैं :
अष्टांगिक पथ को केवल आठ अनुक्रमिक चरणों के समूह के रूप में नही देखना चाहिए, जिसमें अगले चरण पर आगे बढ़ने से पहले , उससे पहले वाले चरण में पूर्णता की आवश्यकता होती है। बल्कि, पथ के इन आठ घटकों को सही जीवन जीने के लिए मार्गदर्शक करने वाला मानदंड मान कर चलना चाहिए जिनका जहाँ तक हो सके, दिए हुए क्रम में एक साथ पालन किया जाना चाहिए, क्योंकि इस पथ का उद्देश्य है- पूरी तरह से एकीकृत एक उच्चतम जीवन प्राप्त करना.... चीजों को उस रूप में देखना जैसे वे वास्तव में हैं, परस्पर संबंधित और लगातार बदलती हुई, यही विवेक है.... नैतिक आचरण है- अपने उद्देश्य अपनी वाणी और अपने कर्म को शुद्ध करना है, जिससे अतिरिक्त लालसाओं का प्रवाह रुक जाए... मानसिक अनुशासन अंतर्दृष्टि प्राप्त करने तथा बुरे स्वभाव और आदतें, जिनका आधार अतीत की अज्ञानता और तृष्णा है, को खत्म करने के लिए काम करता है। (58)
इन चार सत्यों को पहचानने और अष्टांगिक पथ के उपदेशों का पालन करने से, व्यक्ति ‘बनने के चक्र’ से मुक्त हो जाता है जो अस्तित्व का एक प्रतीकात्मक चित्रण है।इस चक्र के केंद्र में अज्ञान, लालसा और घृणा है जो इस पहिए को चलाते हैं। पहिये के केंद्र और किनारे के बीच अस्तित्व की छह अवस्थाएँ दिखाई गई हैं: मानव, पशु, भूत, राक्षस, देवता और नरक-जीव। पहिये के किनारे पर उन स्थितियों को दर्शाया गया है जो पीड़ा का कारण बनती हैं: जन्म, शरीर-मन, चेतना, संपर्क, भावना, प्यास, पकड़, इच्छा, इत्यादि।
यह पहचानकर कि ये स्थितियाँ दुख का कारण बनती हैं, हर एक व्यक्ति अष्टांगिक मार्ग के माध्यम से स्वयं को अनुशासित करके इनसे बच सकता है ताकि वह अज्ञानता, लालसा और घृणा से प्रेरित हुए बिना संसार के चक्र से मुक्त हो जाए जो उसे निरंतर पुनर्जन्म की पीड़ा से बांधता है। इस अनुशासन का पालन करते हुए, व्यक्ति जीवन की चीजों के प्रति अपने लगाव से नियंत्रित और पीड़ित हुए बिना ,जीवन जी सकता है। और मर जाने के बाद उसका पुनर्जन्म नहीं होगा , बल्कि निर्वाण की आध्यात्मिक स्थिति प्राप्त कर मुक्ति पा लेगा। तो यह है वह "मध्य मार्ग" जिसे बुद्ध ने एक तरफ़ भौतिक वस्तुओं और व्यक्तिगत संबंधों के प्रति दासतापूर्ण लगाव तथा दूसरी ओर अपने समय के जैनियों द्वारा अपनाई जाने वाली चरम तपस्या के बीच का एक मार्ग खोजा था।
उन्होंने अपनी शिक्षाओं को धर्म कहा, जिसका यहाँ अर्थ "ब्रह्मांडीय कानून" है, जबकि हिंदू धर्म इसी शब्द को "कर्तव्य" के रूप में परिभाषित करता है। हालाँकि, बुद्ध के धर्म की व्याख्या "कर्तव्य" के रूप में भी की जा सकती है, क्योंकि उनकी मानना थी कि हर एक का कर्तव्य है कि वह अपने जीवन की जिम्मेदारी ख़ुद ले।प्रत्येक व्यक्ति अंततः इसके लिए स्वयं जिम्मेदार है कि वह कितना कष्ट सहना या नहीं चाहता है। हर कोई अंततः, अपने जीवन पर नियंत्रण पा सकता है। उन्होंने सृष्टिकर्ता ईश्वर में विश्वास को मनुष्यों के जीवन के लिए अप्रासंगिक और दुख में योगदानकर्ता के रूप में अस्वीकार कर दिया क्योंकि व्यक्ति संभवतः ईश्वर की इच्छा को नहीं जान सकता और ऐसा वह कर सकता है ,इस विश्वास से उसे केवल हताशा, निराशा और दर्द ही मिलेगा। अष्टांगिक मार्ग का अनुसरण करने के लिए किसी ईश्वर की आवश्यकता नहीं है; बल्कि हर किसी को अपने कार्यों और उनके परिणामों के लिए पूरी जिम्मेदारी लेने की प्रतिबद्धता की आवश्यकता है।
दर्शन एवं सिद्धांत
बुद्ध अस्सी वर्ष की आयु तक अपने धर्म का प्रचार करते रहे, अंततः उनकी मृत्यु कुशीनगर में हुई। उन्होंने अपने शिष्यों से कहा कि उनकी मृत्यु के बाद, उनका कोई नेता नहीं होना चाहिए और न ही उन्हें किसी भी तरह से सम्मानित किया जाए। । उन्होंने अनुरोध किया कि उनके अवशेषों को एक स्तूप में दफ़ना कर एक चौराहे पर रखा जाए। हालाँकि, ऐसा नहीं हुआ, क्योंकि उनके अनुयायियों के अपने विचार थे। उनके अवशेष विभिन्न क्षेत्रों में , जो उनके जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं से संबंध रखते थे, आठ (या दस) स्तूपों में जमा किए गए । एक नेता भी चुना गया क्योंकि वे ठबुद्ध के काम को आगे जारी रखना चाहते थे और इस तरह, जैसा कि मनुष्य का काम करने का ढंग है, उन्होंने परिषदें और बहसें आयोजित कीं तथा नियम और कानून बनाए ।
सी 400 ईसा पूर्व की प्रथम परिषद में, मूल शिक्षाओं और मठवासी अनुशासन पर निर्णय लिया गया और उन्हें संहिताबद्ध किया गया। 383 ईसा पूर्व में दूसरी परिषद में, मठवासी अनुशासन में निषेधों पर विवाद के कारण स्थविरवाड़ा स्कूल (जो उक्त निषेधों का पालन करने के लिए तर्क देता था) और महासंघिका स्कूल ("महान मण्डली")जो बहुमत का प्रतिनिधित्व करता था और उन विचारों को खारिज करता था, के बीच पहला विवाद हुआ। इस विभाजन के परिणामस्वरूप अंततः तीन अलग-अलग विचारधाराओं की स्थापना हुई:
- थेरवाद बौद्ध धर्म (बुजुर्गों का स्कूल)
- महायान बौद्ध धर्म (महान वाहन)
- वज्रयान बौद्ध धर्म (हीरे का मार्ग)
थेरवाद बौद्ध धर्म (जिसे महायान बौद्धों द्वारा हीनयान यानि “छोटा वाहन" कहा जाता है, और जिसे थेरवाद में अपमानजनक शब्द माना जाता है) सिद्धांतों को उनके मूल रूप में अभ्यास करने का का दावा करता है, जिस तरह बुद्ध ने सिखाया था। इसके अनुयायी पाली भाषा की शिक्षाओं का पालन करते हैं और अर्हत ("संत") बनने पर ध्यान केंद्रित करते हैं। इस विचारधारा की विशेषता व्यक्तिगत ज्ञानोदय पर ध्यान केंद्रित करना है।
महायान बौद्ध धर्म (जिसमें ज़ेन बौद्ध धर्म भी शामिल है) संस्कृत में शिक्षाओं का पालन करता है और इसके अनुयायी बोधिसत्व ("ज्ञान का सार") बनने की दिशा में काम करते हैं ;जिसने बुद्ध की तरह, पूर्ण चेतना प्राप्त कर ली है, लेकिन अज्ञान दूर करने में दूसरों की मदद करने के लिए उसने निर्वाण की शांति का त्याग कर दिया है। महायान बौद्ध धर्म आज के समय में प्रचलित सबसे लोकप्रिय विचारधारा है और यह बुद्ध की शिक्षाओं का ईमानदारी से पालन करने का दावा भी करता है।
वज्रयान बौद्ध धर्म (जिसे तिब्बती बौद्ध धर्म के रूप में भी जाना जाता है) अष्टांगिक पथ पर चलना शुरू करने के लिए बौद्ध अनुशासन के प्रति प्रतिबद्ध होने और किसी की जीवन शैली को बदलने की अवधारणा से दूर है। यह विचारधारा तत् त्वम असि ("तू वही है") वाक्यांश द्वारा दर्शाए गए विश्वास की वकालत करता है कि हर कोई पहले से ही बोधिसत्व है, उसे केवल इसका एहसास करना है। इसलिए, किसी को अपने सफर की शुरुआत में ही अस्वास्थ्यकर आसक्तियों को छोड़ने की जरूरत नहीं है, बल्कि, बस रास्ते पर आगे बढ़ते रहना चाहिए और चलते चलते, वे आसक्तियां कम से कम आकर्षक होती जाएंगी। दूसरे पंथों की तरह, वज्रयान का भी दावा है कि यह बुद्ध की मूल दृष्टि के प्रति सबसे अधिक वफादार है।
सभी तीनों पंथ चार आर्य सत्यों और अष्टांगिक पथ का पालन करते हैं, जैसा कि कई अन्य छोटे पंथ करते हैं, और किसी को भी वस्तुनिष्ठ रूप से दूसरों की तुलना में अधिक वैध नहीं माना जाता है, हालांकि, जाहिर है, प्रत्येक के अनुयायी इस से सहमत नहीं होंगे।
निष्कर्ष
बौद्ध धर्म भारत में अशोक महान के शासनकाल तक एक छोटी सी दार्शनिक विचार प्रणाली के रूप में जारी रहा,जिसने कलिंग युद्ध (लगभग 260 ईसा पूर्व) के बाद हिंसा को त्याग कर बौद्ध धर्म को अपनाया। अशोक ने बुद्ध के धर्म को धम्म नाम से पूरे भारत में फैलाया जो "दया, दान, सच्चाई और पवित्रता" पर आधारित है (की, 95)। उन्होंने बौद्ध दर्शन को प्रोत्साहित करने वाले शिलालेखों के साथ-साथ पूरे देश में 84,000 स्तूपों में बुद्ध के अवशेषों को विघटित और पुन: स्थापित करवाया। उन्होंने बुद्ध के संदेश को फैलाने के लिए मिशनरियों को अन्य देशों - श्रीलंका, चीन, थाईलैंड, ग्रीस - में भी भेजा।
बौद्ध धर्म भारत की तुलना में श्रीलंका और चीन में अधिक लोकप्रिय हो गया और इन देशों में स्थापित मंदिरों से और भी अधिक फैल गया। बौद्ध कला ईसा पूर्व दूसरी और पहली शताब्दी के बीच दोनों देशों में दिखाई देने लगी, जिसमें स्वयं बुद्ध के मानवरूपी चित्रण भी शामिल थे। पहले कलाकारों ने, अशोक के समय में, बुद्ध का चित्रण करने से परहेज किया था और केवल प्रतीकों के माध्यम से उनकी उपस्थिति का सुझाव दिया था, लेकिन तेजी से, बौद्ध स्थलों में उनकी मूर्तियाँ और चित्र शामिल होने लगे। यह प्रथा सबसे पहले महासंघिका स्कूल के एक संप्रदाय द्वारा शुरू की गई थी।
समय के साथ, ये मूर्तियाँ पूजा की वस्तु बन गईं। बौद्ध बुद्ध की "पूजा" नहीं करते हैं, लेकिन बुद्ध का प्रतिनिधित्व करने वाली मूर्ति उनके लिए न केवल आत्मज्ञान के मार्ग पर ध्यान केंद्रित करने का केंद्र बिंदु बन जाती है, बल्कि बुद्ध के प्रति आभार व्यक्त करने का एक तरीका भी बन जाती है। इसके अलावा, जो कोई बुद्ध बन जाता है (और, महायान बौद्ध धर्म के अनुसार, हर एक में बुद्ध बनने की संभावना है) वह एक प्रकार का "भगवान" बन जाता है, क्योंकि उसने मानवीय स्थिति को पार कर लिया है और इसलिए वह इस उपलब्धि के लिए विशेष मान्यता के पात्र बन जाता है। वर्तमान समय में, दुनिया में 500 मिलियन से अधिक बौद्ध अनुयायी हैं, प्रत्येक अष्टांगिक मार्ग का पालन अपनी समझ के मुताबिक़ कर रहे हैं और यह संदेश फैला रहे हैं कि व्यक्ति को जीवन में केवल उतना ही कष्ट उठाना पड़ता है जितना कि वह ख़ुद चाहता है और एक रास्ता है , जो शांति की ओर ले जाता है।